पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४१२

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भावना ३६५१ भावथ या co शक्ति। विशेप-पुराणों में तीन प्रकार की भावनाएं मानी गई हैं भावनिg+-संज्ञा स्त्री० [हिं० भाना भावना (= अच्छा ब्रह्मपावना, कर्मभावना और उभयात्मिका भावना; घोर लगना)] जो जी में प्रावे । इच्छानुसार बात या काम । कहा गया है कि मनुष्य का चित्त जैसा होता है, वैसी ही उ.-जब जमदूत पाइ घेरत हैं करत पापनी भावनि।- उसकी भावना भी होती है। जिसका चिच निर्मल होता है काष्ठजिह्वा (शब्द०)। उसकी भावना ब्रह्म सबधी होती है। और जिसका चित्त समल भावनिक्षेप-सञ्ज्ञा पुं० [ ] जैनों के अनुसार किसी पदार्थ का होता है, उसकी भावना विषयवासना की ओर होती है । वह नाम जो उसके केवल वर्तमान स्वरूप को देखकर रखा जैनियो मे परिकर्म भावना, उपचार भावना और प्रात्म गया हो। भावना ये तीन भावनाएं मानी गई है; और बौद्धों में भावनोय-वि० [स०] १. भावना करने योग्य । चिंता या विचार माध्यमिक योगाचार, सौत्रातिक और वैभाषिक ये चार करने योग्य । २. जो सह्य हो । सहने योग्य । भावनाएँ मानी गई हैं और कहा गया है कि मनुष्य इन्ही भावनेरि-संज्ञा स्त्री० [स०] नृत्य का एक भेद । एक प्रकार का के द्वारा परम पुरुषार्थ करता है । योगशास्त्र के अनुसार अन्य नाच (को०] । विषयों को छोड़कर बार बार केवल ध्येय वस्तु का ध्यान भावपरिग्रह-संज्ञा पुं॰ [सं० ] वास्तव में धन का संग्रह न करना, करना भावना कहलाता है। वैशेषिक के अनुसार यह प्रात्मा पर धन के संग्रह की मन मे अभिलापा रखना । (जैन) । का एक गुण या सस्कार है जो देखे, सुने या जाने हुए पदार्थ के सबंध में स्मृत या पहचान का हेतु होता है; और भावप्रकाश-संज्ञा पुं॰ [स०] १. वैद्यक का प्रसिद्ध न य । २. भाव या भावो का प्रकट होना। ज्ञान, मद, दुःख आदि इसके नाशक हैं । भावप्रधान-सञ्ज्ञा पु० [सं०] दे० 'भाववाच्य' । २. चित का एक संस्कार जो अनुभव और स्मृति से उत्पन्न होता है। ३. कामना । वासना । इच्छा। चाह । उ०- भावप्रवण-वि० [सं० ] रसज्ञ । भावुक [को०] । (क) पाप के प्रताप ताके भोग रोग सोग जाके साध्यो चाहै भावप्राण-सञ्चा पुं० [सं० ] जैनों के अनुसार प्रात्मा की चेतना प्राधि व्याधि भावना अशेष दाहि ।-केशव (शब्द०) । (ख). तह भावना करत मन माही । पूजत हरि पद पंकज काहीं।- भावबंध-संया पुं० [स० भावबन्ध] जनशास्त्र के अनुसार भावना या रघुराज (शब्द०)। ४. साधारण विचार या कलना । ५. विचार जिनके द्वारा कर्म तत्व से मात्मा बंधन मे पड़ता है। काफ । कोमा (को०) । ६. सलिल । जल (को०) । ७. वैद्यक के भावबंधन-वि० [सं० भाववन्धन ] जो हृदय को मोहित करे । अनुसार किसी चूर्ण प्रादि को किसी प्रकार के रस या तरल मन को बांधने या मुग्ध करनेवाला [को॰] । पदार्थ में बार बार मिलाकर घोटना और सुखाना जिसमें भाववोधक-वि० [सं०] १. भाव व्यक्त करने या बतानेवाला । उस भोषध मे रस या तरल पदार्थ के कुछ गुण प्रा भाव प्रकट करनेवाला । २. अनुभाव । भावभक्ति-संज्ञा स्री० [सं० भाव+ भक्ति ] १. भक्तिभाव । २. क्रि० प्र०-देना। प्रादर । सत्कार । उ०-नैन मूदि कर जोरि बोलायो । भावना-क्रि०प० अच्छा लगना । पसंद पाना । रुचना । उ० भाव भक्ति सों भोग लगायो । —सूर (शब्द०)। (क) मन भाव तिहारे तुम सोई करो, हमे नेह फो नातो भावभूमि-संज्ञा स्त्री० [सं० ] भावों की भूमि या क्षेत्र । उ०—-उनके निबाहनो है (शब्द०)।-(ख) गुन अवगुन जानत सब कोई । काव्य की भावभूमि और उसकी मूलगत प्रेरणा तक पहुँच जो जेहि भाव नीक तेहि सोई।-तुलसी (शब्द०) । (ग) जाना सहज हो जाएगा।-अपरा, पृ०२। जग भल कहहिं भाव सव काहू । हठ कीन्हें अंतहु उर भावमन-संज्ञा पुं० [ स० भावमनस् ] जैनों के अनुसार पुद्गलों के दाहू । तुलसी (शब्द॰) । सयोग से उत्पन्न ज्ञान । भावना-वि० [हिं• भावना (=अच्छा लंगना) ] जो अच्छा भावमिश्र-संज्ञा पुं० [सं०] योग्य पुरुष । अादरणीय सज्जन । लगे। प्रिय । प्यारा। विद्वज्जन । (नाटय०) । भावनामय-वि० [सं०] भावनायुक्त । काल्पनिक [को०)। भावमृषावाद-संज्ञा पुं० [स०] १. ऊपर से झूठ न बोलना, पर मन भावनामय शरीर-संज्ञा पुं० [सं०] सांस्य के अनुसार एक प्रकार मे झूठी बातो को कल्पना करना। २. शास्त्र के वास्तविक का शरीर जो मनुष्य मृत्यु से कुछ ही पहले धारण करता मर्थ को दबाकर अपना हेतु सिद्ध करने के लिये झूठ मूठ है और जो उसके जन्म भर के किए हुए पापों और पुण्यो नया पर्थ करना । (जैन)। के अनुरूप होता है । जब पात्मा उस परीर में पहुँच जाती भावमैथुन- नमश पु० [सं० ] मन में मथुन का विचार वा कल्पना है, तभी मृत्यु होती है। करना (जैन)। भावनामार्ग-संज्ञा पु० [सं०] माध्यात्मिक सरणि । प्राध्यात्मिक भावय-संज्ञा पु० [देश॰] वह व्यक्ति जो धातु की चद्दर पीटने के अवस्था भाव [को॰] । समय पासे को संडसे से पकड़े रहता है और उलटता भावनाश्रय-संज्ञा पुं० [सं०] शिव को।। रहता है। जायं । पुट। -- ".