पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४१७

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भिंग भितापात्र २. भय । डर । २०-नारी चली उतावली नख सिख लागे भिंगोरा-संशा पु० [ मं० भाार ] १. मंगरा । भूगरा । पमरा । भाहि । सुदर पटकै पीव सिर, दुख सुनावै काहि । -सुदर० २. शृंगराज पक्षो। ग्र०, भा०२, पृ०७०८ । भिंगोरी -40 मी० [स० भूरा गराज नामक पदो। भिंग-संज्ञा पु० [ स० भूग, प्रा० भिग] १. शृंगी नाम का कीड़ा भिजवना-क्रि० स० [हिं०]:. 'मिगोना' । 3.-न जिसे बिननी भो कहते हैं। ३. भौरा। उ०-भृगी पुच्छ वनिता चोरी गई होरी सेलन माज रस टोरी दोरी फिरत भिंग सुन की ससारहि सार ।-कोति०, पृ० ६ । भिजवति गराज 1-जन, पृ० ३१ । भिंग-संज्ञा स्त्री० [सं० भग्न वा भङ्ग] वाया। भिजाना-क्रि० स० [हिं० ] ६० 'भिगोना' । भिंगराज- संज्ञा पुं० [ म० भृगराज ] दे॰ 'भृगराज' । भिंजोना, भिंजीवना-क्रि० स० [हिं० ] दे० 'निगोना' । भिंगार-संशा पु० [ स० भृङ्गार, प्रा. भिंगार ] एक प्रकार का पाय । भिाई-सथा पुं० [हिं० भंया ] भाई । मइया । भृ गार । झारी या कमंडलु के वर्ग का एक पाय । भिगिसी-शा सो [ स० भिङ्गिसी ] फंबल की एक किस्म [को॰] । भि-पु. २० भीम ] ३. 'मीम'। 30-को धोद नि' अंग परदाहा |--जायसी०प्र०, पु० १५६ । भिंडा'-सा ग्री० [हिं० भोटा ] भोटा। तालाव के चारो ओर किनारे की ऊंची जमीन । ऊंची जमीन । उ०-इस पोखर भिकारी, भिक्खारोल-मा f० [५० भिक्षापारी] दे० 'भिसारी'। के तीन भिंडों पर सब उपाध्याय घराने की बढ़ती पावादी उ०-प्रसर रस चुम्मानिहार नहि कानुन नाम मिरि छा गई थी।-रति०, पृ० २१ । भ31-कीति, पृ० १२ ॥ भिंड-सा पु० [सं० भिएट] दे० 'भिडी'। भिक्खु-संज्ञा पुं० [सं० भिःशु, प्रा० भिस] योर सामु । ३० भिक्षु' । भिंडक-पशा पु० [स० भिण्डक ] दे० 'भिडी' । उ.-उन का उपदेश मानकर पसार छोड़कर नुन ते सोग भिंडा-सा पु० [देश॰] वडी सटक । उनके अनुयापी हो गप पोर भिात कहलाए-हि. सभ्यता०पू०२५३ ॥ भिंडा-संग सी० [स० भिएता ] भिडी। भिक्षण- पुं० [सं०] भिक्षा मागो को किवा ! मौत मामना । भिंडिस पुं० [स० भिन्दि ] गोफना । ढेलवास । मिखमंगी। भिडिपाल-संज्ञा पु० [सं० मिन्दिपाल ] छोटा डंडा जो प्राचीन भिक्षा- सी० [सं०] १. पारना । मांगना । जैसे,--में मापसे काल में फेंककर मारा जाता था। यह भिक्षा मांगता है कि माप इसे छोड़ दें। २. दीनता भिंडी-सश स्त्री० [स० भिण्ढा] एक प्रकार के पौधे की फली जिसकी दिसलाते हुए मरने उदरनिर्वाह के लिये पुम गुमार पन्न, तरकारी बनती है। धन मादि मांगने का काम । भोज। विशेष—यह फली चार अंगुल से लेकर वालिश्त भर तक कि.प्र.-माँगना। लबी होती है। इसके पौधे चैत से पेठ तक वोप जाते हैं। मौर जव ६-७ मंगुल के हो जाते हैं। तब दूसरे ३. इस प्रकार मांगने से मिनी हुई वस्तु । भौत। ४. नेपा। स्थान मे रोपे जाते हैं। इसकी फसल को खाद और निराई नौकरी । ५. मजदूरी। पेतन । नृति (0) की प्रावश्यकता होती है। इसके रेशों से रस्से मादि बनाए यो०--भिशाकरण = भोस मांगना । भिशाचर = निःशुरु । फकीर । जाते हैं; और कागज भो बनाया जा सकता है। वैद्यक में मिक्षाचरण, भिक्षापर्य भिकार्यादे. भिक्षा करण' । इसे उष्ण, ग्राही और रुचिकारक माना है। इसे कहीं कही भिघाजीवी । भिखारा । भिषाभाड । भिषामाजन= रामतरोई भी कहते हैं। दे० 'भिक्षापात्र' । निमुन . भिशात्रीयो' । भिदिपाल - संज्ञा पुं० [स० भिन्दिपाल ] १.३० (भिडिपाल'। २. भिक्षावास । भिशावृत्ति=भिक्षा द्वारा जीविका करना। द० भिडि'। भिशुरु का जीवन । भिंदु-वि० [ सं० भिन्दु ] ध्वस्त या नष्ट करनेवाला । भिक्षाक-[ ] भी मांगनेवाला । भिक्षक। भिंदु-संज्ञा पुं० १. बिंदु । बूद । २. विध्वंसक या नाशक व्यक्ति । मिक्षाजीवी-वि० [सं०] भिशा द्वारा निर्वाह करनेवाला (ले० । भिंदु-ज्ञा भी वह स्त्री जिसे मरा हुप्रा बच्चा पैदा हो । मृत शिशु भिक्षाटन-संज्ञा पुं॰ [ में० ] भीख मांगने को फेगे। भोस मांगने का प्रसव करनेवाली स्त्री को०)। के लिये इधर उधर घूमना । भिंभर-वि० [स० विद्दल, प्रा. भिंभल] चंचल । चपल । विह्वल । भिक्षान-संग पुं० [सं०] भोत मे पाप्त अन्न । भिंभरनेनो-वि० [हिं० भिभर+नेन+ई ] विह्वल या चंचल भिक्षार्थी-वि० [स० भिक्षार्थिन् ] [को० मिक्षायिनी ] भोत नागने- नेत्रवाली। उ०-ढलकतिय बैनी भिभरनेनी जुग फल देनी वाला। रस मेन । -पृ० रा०, १२।२५५ । भिक्षापात्र-सा पु० [म.] वह पात्र जिसमें मिसमगे भीरा मांगते भिसार-सवा पु० [स० भानु + सरण] सबेरा। सुबह । प्रातःकाल । हैं। कपाल । २. वह व्यक्ति जिसे भिक्षा देना उचित हो। भिंगाना-क्रि० स० [हिं० ] दे० 'भिगोना'। भिक्षा प्राप्त करने का मधिकारी। Ho