पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४२१

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भियानी भिसटा वृक्ष [को०] । भयानी-सञ्ज्ञा स्त्री० [ देश० ] स्याहो । रोशनाई । उ० भिल्लरी-सञ्ज्ञा स्त्री० [ दरा० या स० भल्ल (तीर का फल) ] कागद सात प्रकास बनावै। सात समुद्र भियानी लावै ।- भल्लिका । तीर का अग्न भाग। उ०-सनन सोर भिल्लरिय हिंदी प्रेमगाथा० पृ० २७७ । घनन घर धार लकिय ।-पृ० रा० २२८३ । भिरंगीg -संज्ञा पु० [सं० भृङ्ग ] एक प्रकार का कीड़ा। वि० भिल्लोट, भिल्लोटक-- ज्ञा पु० [ स० ] लोध का पेड़ । लोध्र । ६० भृग'। उ०- मोरे लगि गए वान सुरगी हो। धन सतगुर उपदेश दियो है होइ गयो चित्त भिरगी हो।- भिश्त@+-तज्ञा ना० [फा० बिहिश्त] वैकुठ । स्वर्ग । उ०प्रलख संतवानी०, भा॰ २, पृ० १३ । अकल जानै नही जीव जहन्नम लोय । हरदम हरि जान्या भिरना@-क्रि० स० [हिं० ] दे० 'भिड़ना' । उ०-पावत देसन नही भिश्त कहाँ ते होय ।-कबीर (शब्द०) । लेत सिवा सरज मिलिहौ भिरिही कि भगैहो । -भूषण भिश्ती-मज्ञा पु० [?] मशक द्वारा पानी ढोनेवाला व्यक्ति । सका। ग्र०, पृ० ३१३ 1 भिरिंग-संज्ञा पु० [ स० भृङ्ग ] दे॰ भृग' । भिषक्-ज्ञा पु० [म० भिपज् ] १. वैद्य । चिकित्सक । २. ओषधि । दवा (को०) । ३. विष्णु का नाम (को०) । ४. देवताप्रो के वैद्य भिरिं'टका-सञ्ज्ञा स्त्री० [स० भिरिण्टिका ] श्वेत गुजा। सुफेद अश्विनीकुमार (को०)। घुघची [को॰] । विशेष—इस अर्थ का प्रयोग द्विवचन मे होता है । भिलनी'-सञ्ज्ञा खी- [हिं० भील ] भील जाति की स्त्री। भिपक्पाश-पज्ञा पु० [-] कुवैद्य । छद्मवैद्य (को॰] । भिलनी-मज्ञा स्त्री॰ [ देश०] एक प्रकार का धारीदार कपड़ा या भिषप्रिया-संज्ञा स्त्री॰ [ स०] गुड़ च । चारखाना। भिपग-सञ्ज्ञा पुं० [स० भिपज् ] भिपज शब्द का कर्ता कारक एक- भिलना -क्रि० स० [ देश०] मिलना । सयुक्त होना । उ०—गहरं, वचन । दे० भिषक् । दुरदान भद्रान मद्दी। भिली साइर जानि निव्वान नही । भिषगजित -पु० रा०, २।२३७ । -सज्ञा पुं० [भ] दवा । औषध । भिलावा-सज्ञा पु० [स० भल्लातक] १. एक प्रसिद्ध जगली वृक्ष जो भिषगभद्रा-संज्ञा स्त्री॰ [स० ] भद्रदतिका । सारे उत्तरी भारत मे प्रासाम से पजाब तक और हिमालय भिषग्माता-शा सी० [स० भिपग्मातृ ] वासक । अडूसा। की तराई मे ३५०० फुट की ऊंचाई तक पाया जाता है। अख्सा [को॰] । विशेष-इसके पत्ते गूमा के पत्तो के समान होते हैं । इसके तने भिपगवर-संज्ञा पु० [सं०] १. उत्कृष्ट वैद्य । श्रेष्ठ चिकित्सक । २. को पाछने से एक प्रकार का रस निकलता है जिससे वानिश अश्विनीकुमार । दे० 'भिपक्'-३. का विशेष [को॰] । बनता है। इसमें जामुन के प्राकार का एक प्रकार का लाल फल लगता है जो सूखने पर काला और चिपटा हो जाता है भिपजावर्त-संज्ञा पुं० [स०] कृष्ण [को०] । भिषज् -प्रज्ञा पुं० [A] वैद्य । दे० 'भिपक्' । और जो बहुधा पोषघ के काम में प्राता है । कच्चे फलों की तरकारी भी बनती है। पक्के फल को जलाने से एक प्रकार भिपज्य-सज्ञा पुं० [सं०] १. रोग का निवारण । २. औषध । का तेल निकलता है जिसके शरीर में लग जाने से बहुत दवा [को०] । जलन और सूजन होती है। इस तेल से वहुधा भारत के भिष्ख-सञ्ज्ञा पुं० [ स० भिक्षा ] दे० 'भीख'। उ०-नहु मान धोबी कपडे पर निशान लगाते हैं जो कभी छूटता नहीं। इसमें धनिष्ख भिष्ख भावइय राम घरहि उत्पत्ति । -कीर्ति०, फिटकरी प्रादि मिलाकर रंग भी बनाया जाता है। कच्चे पृ०७०। फल का ऊपरी गूदा या भीतरी गिरी कही कही खाने के काम भिष्टल-वि० [सं० भ्रष्ट ] भ्रष्ट । पतित । खराव । उ०—कामी में भी पाती है। वैद्यफ मे इसे कसैला, गरम, शुक्रजनक, मति भिष्टल सदा, चल चाल विपरीत ।-सहजो०, मधुर, हलका तथा वात, कफ, उदररोग, कुष्ठ, बवासीर, पृ० १६५। संग्रहणी, गुल्म, ज्वर प्रादि का नाशक माना है । भिष्ठा-संज्ञा पु० [म० विष्ठा ] मल । गू। गलीज । पर्या-श्ररुष्कर । शोथहृत । बहिनामा । वोरतरु । व्रणवृत भिष्मा, भिष्मिका, भिब्मिटा भिष्मिष्टा-सज्ञा स्त्री० [स०] भुजा भूतनाशन | अग्निमुखी । भक्ली। शैलबीज । वातारि । हुग्रा अन्न । दग्धान्न (को०] । धनुवृक्ष । वीजपादप । वह्नि। महातीक्ष्ण । अग्निक । भिष्पना-क्रि० स० [स० भिक्षण.] भोख मांगना । याचना स्फोटहेतु । रक्तहर। करना । उ०—पनाह जोति दिष्षयं । मरीच भानं भिष्पयं । भिल्ल-संज्ञा पु० [स०] दे० 'भोल'। सुभट्ट छंद बद्दयं । -पृ. रा०, ७/४६ । भिल्लगवी-संज्ञा स्त्री॰ [स०] नीलगाय । भिसटा-संज्ञा पु० [ स० विष्टा ] मल । गू। गलीज । उ०- भिल्लतरु-सञ्चा पु० [सं०] लोध । अणभजिया भजिया तणी दीसे प्रतष दुसाल । भिसटा भिल्लभूपण-संज्ञा पु० [स] घुघची । गुजा (को०] । तो वायस भख, मोती भखै मराल :-रघु० रू०, पृ० ४१ ।