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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४२२

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HO मिसते भीट भिसत - ज्ञा पुं० [फा० बिहिश्त ] स्वर्ग । उ०-पग्यो न दिल २. अधिक । ज्यादा । विशेष । जैसे-इसपर सन्नाटा और प्रभुरै पदपकज भिसत न त्यातिक भेटे ।- रघु० ७० पृ० १८ | भी प्राश्चयजनक है। ३ तक | लो। उ०-मनुष्य की कौन भिसर--संज्ञा पु० [ भूसुर] ब्राह्मण । (डि०)। वहे, जहाँ तक दृष्टि जाती थी, पशु भी दिखलाई न देता भिसिणी'-सना पु० [१० व्यसनी ] व्यसनी (हिं० )। था ।-अयोध्यासिंह (शब्द०) । भिसिणी-भज्ञा स्त्री० [सं० मिसिनी ] पद्मिनी । कमतिनी (को०) । भीउँg-सज्ञा पु० [सं० भोम ] युधिष्ठिर के छोटे भाई । भीमसेन । उ०-जैसे जरत लच्छ घर साहस कीन्हा भोउ। जरत खभ भिस्त-संज्ञा स्त्री॰ [फा० विहिश्त ] . भिश्त' । तस काढयो के पुरुषारप जीउँ ।-जायसी (शब्द॰) । भिस्स-नशा जी० [ स० विस j कमल की जड़ । भंसीड़ । भिस्सटा-ज्ञा स्त्री॰ [सं०] दे० भिष्मा' [को०] । भोक'-वि० [स०] डरा हुआ । मीत । भिस्सा-सज्ञा स्त्री० [सं०] उबाला चावल । भात [को०] । भीका--संज्ञा स्त्री० [हिं० भीख ] दे॰ 'भीख' । भिस्सिटा-सा सी० [सं०] दे० 'भिष्मा' । भीकर-वि० [सं०] भयंकर । भयावना (को०] । भीख-संज्ञा जा [ स० भिक्षा ] १. किसी दरिद्र का दीनता दिखाते भिहराना-कि० अ० [म० विहरणा ] भहराना । टूट पडना । उ.-इत यह बली व्याल निहरानो। मधु.रिपु-प्रासन प्रति हुए उदरपूर्ति के लिये कुछ मांगना । भिक्षा । ' सगुहानी।-नद० सं०, पृ० २८३ । क्रि० प्र०-माँगना। भिहिलाना:--त्रि० प्र० 1 हिं० विहराना ] विखर जाना । नष्ट यौ-भिखमंगा । भिखारी। होना । उ०—कागज के पुतरी तन जानो वुद परे भिहि- २. वह घन या पदार्थ जो इस प्रकार मांगने पर दिया जाय । लायो ।-दरिया०, पृ० १०० । भिक्षा मे दी हुई चीज । खैरात । भौगना-क्रि० अ० [हिं०] ३० 'भोगना' । क्रि० प्र०-देना।-पाना |-मिलना। भीगी-मज्ञः पु० [सं० भृङ्गी] १. भंवरा । अति । २. एक प्रकार का भीखन-वि० [सं० भीपण ] भयानक । भयंकर । डरावना । फतिगा जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि वह किसी भी कृमि उ०-एरो खनहुँ न सुख लखो दुख है दुखद दिखाइ । भीखन को अपने रूप मे ले पाता है। भोखन लगत है तीखन तीख बनाइ।-रामसहाय (शब्द॰) । भौचना-क्रि० स० [हिं० खींचना ] १. खीचना । फसना । भीखमg+-संज्ञा पु० [सं० भीष्म ] राजा शांतनु के पुत्र भीष्म दवाना। उ०-त्यो तिय भीचि भुजनि मैं पी । पितामह। -(शब्द०)। २. मदना । ढॉपना । बद करना (अाँख के भोखम-वि० भयानक । डरावना । लिये)। ३. काटना । दातो से काटना । भोगना-कि० अ० [सं० अभ्यञ्ज ] पानी पा और किसी तरल भीजनाg-क्रि० अ० [हिं० भीगना ] १. श्राद्रं होना । गीला पदार्थ के सयोग के कारण तर होना । प्रार्द्र होना । जैसे,- होना । तर होना। भोगना । २. पुलकित वा गद्गद् हो वर्षा से कपड़े भीगना, पानी में दवा भीगना । उ०-गगरी जाना । प्रेममग्न हो जाना। ३ लोगों के साथ हेल मेल भरत मोरी सारी भीगी, सुरख चुनरिया ।--गोत (शब्द०)। वढ़ाना। मेल मिलाप पैदा करना। ४. स्नान करना। मुहा०-भोगी बिल्ली होना= भय प्रादि के कारण दब जाना । नहाना । ५. समा जाना । घुस जाना । बिलकुल चुप रहना । उ.-भोगी बिल्ली हैं और काठ के भौट-संज्ञा पुं० [हिं० भीट ] दे० 'भोट'। उल्लू है।-चुभते०, पृ० ५। भीटना-क्रि० स० [हिं० ] दे० 'भेंटना' । उ०-सुदर तृष्णा भीच-संज्ञा पुं॰ [डिं० ] दे० 'भोचर'। उ०-जीता भीच अजीत कोढनो के ढी लोभ भ्रतार । इनको कबहुँ न भीटिये कोढ रा, ईदै पाई हार।-रा० ६०, पृ० ६१ । लगै तन ख्वार ।-सुदर ग०, भा२, पृ० ७१४ । भीचर-तशा पु० [डि• ] सुभट | वीर । भीत-संज्ञा स्त्री॰ [ स० भित्ति ] दे॰ 'भीत' । भोछ-पंक्षा पु० [देश०] सुभट । भीच । भोचर । भो'-सज्ञा स्त्री॰ [सं०] भय । डर । खोफ । उ०-सुनत प्राइ ऋषि बहुग्यो पारस फिरिय फिरयो भीछ चहुमान ।-पृ० रा०, कुसहरे नरसिंह मंत्र पढ़ि भय भी के।--तुलसी (शब्द॰) । २५/५६२। भी-अव्य० [हिं० ही ] १. अवश्य । निश्चय करके | जरुर । भीजना-क्रि० प्र० [हिं० ] दे०. 'भीगना' । २. भारी होना। विशेप-इस अथ मे इसका प्रयोग किसी एक पदार्थ या मनुष्य बढ़ना। उ०-बूडि बूद्धि तरै प्रोधि थाह धनप्रानंद यौं के साथ दूसरे पदार्थ या मनुष्य का निश्चयपूर्वक होना सुचित जीव सूक्यो जाय ज्यो ज्यौ भीजत सरवरी ।-घनानंद, करता है । जैसे,—(क) तुम्हारे साथ मैं भी चलूगा । (ख' २० । वेतन के साथ भोजन भी मिलेगा। (ग) सजा । पुं० [ देश• ] १. हेवाली जमीन | टीलेदार भूमि । जुरमाना भी होगा। हुई पृथ्वी। २. वह केची भूमि उ०-तब