पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। भू भुसौरा भूकंप भुसौरा--संज्ञा पुं० [हिं० भुसा+घर ] [ स्त्री० भुसौरी ] वह घर ॲरो-शा पु० [सं० भ्रमर ] भ्रमर । गौरा । (डि०) । जिसमे भूसा रखा जाता हो। भूना रखने का स्थान । भूसना -क्रिम [ दश०] भूकना। भूकना-क्रि० अ० [अनु०] १. भू भू या भी भी शब्द करना मुंह-सशा सा॰ [स० भ्र ह। भी । उ०~-जल में भिजि भूह कला (कुत्तों का ) । [इस शब्द का प्रयोग कुत्तों की बोली के लिये दुसरी । सु लरे मनु बाल प्रलीन खरो।-पृ० रा०, १४।४३ । होता है]। २. व्यर्थ बकना । -शा जी० [सं०] १. पृथती। भूखा 1-शा स्त्री॰ [हिं० भूख] ३० भूख' । यो०-भूपति । भूपुर। भूखा-वि० [हिं० भूख ? ] दे० 'भूख' । २. स्थान | जगह । जमीन । ३. सीता जी की एक सखी का भूचा-वि[ देश० या हिं० भुच्च ] ऊजड । उजड्डु । भूड़ रेते से नाम । ४. बचा। ५. प्राप्ति । ६. एक की संख्या (को०)। ७. भरा। उ०-भूच देश में रमि रहे श्रीनारायण दास ।- यज्ञ की प्ररिन। सुंदर० प्र० (जी०), भा० १, पृ० ७४ । भू -वि० उत्पन्न या पैदा होनेवाला । जैसे, अंगभू, मनोभू, स्वयंभू । भुंचनहार--सा पु० [म० भुञ्जन ] भोग करनेवाला । उ०-सकामी भू -गपु० रसातल। सेवा कर, मांगे मुगध गंवार । दाद ऐसे बहुत हैं, फल के भूचनहार ।~-दादू०, पृ० २७० । भू-शा श्री० [स० भ्र] भौह । उ०-कीर नासा इंद्र धनु म भवर मी अलकावली । अधर विद्रुप ववान दादिम कियाँ भूचना@f-कि स० [स० भुञ्जन] भुगतना । भोग करना । उ०- दशनावली।-सूर (शब्द॰) । सगुरा सति संजम रहे, सनमुख सिरजनहार । निगुरा लोभो लालची, मँचै विप विकार ।-दादु०, पृ० ४१४ । भूआ-संज्ञा पु० [हिं० धूआ ] रुई के समान हलकी और मुलायम वस्तु का बहुत छोटा टुकड़ा । जैसे, सेमर का भूपा । भूचाल -ज्ञा पुं० द० [स० भू+हिं० चाल ] द. 'भूकप' । भूआ-वि० भूप्रा के समान । श्वेत । मूंछ--वि० [ देश० ] दे० भुच्चड़' । उ०--खातहि खात भए इतने दिन । जानत नाहि न भूछ कही को।-सुदर प्र०, भा० १, भू-संशा सी० [ देश० ] पिता की वहिद । फूग्रा । वूमा ! उ०- पृ०४३२। अरी भूप्रा वहिन फरति भारती, उन री झगरत अपने नेग, रंग मैहेल में। -पाहार अभि००, पृ. ६३२ । पूँजना-क्रि० स० [हिं० भूनना ] १. किसी वस्तु को पाग में डालकर या और किसी प्रकार गर्मी पहुंचाकर पकाना। -सज्ञा खी० [हिं०घूश्रा या भूश्रा] २. रुई के समान मुलायम २. तलना। पकाना । उ०-ऐं परि जो मो इच्छा होई। वस्तु का बहुत छोटा टुकड़ा । २. किसी जली हुई वस्तु भूज्यो बीज नियजि परे सोई ।-नंद० ग्र०, पृ० २९६ | ३. (रस्सी, लकड़ी यादि) की मुही। उ०-तुई पे मरहि होई दुःख देना । सताना। जरि भूई । मबहूँ उघेल कान के रुई। जायसी (शब्द०)। भूजना--कि स० [स० भोग] भागना । भोग करना । उ०—(क) भूकंद-संज्ञा पु० [सं० भूकन्द ] जमीरुद । सूरन । पोल । राज कि भूजव भरतपुर नृा कि जियहिं विन राम । -तुलसी भूकप-संशा पु० [ स० भ कम्प ] पृथ्वी के ऊपरी भाग का सहसा (शब्द॰) । (ख) कीन्हेसि राजा भूजहि राजू । कीन्हेसि कुछ प्राकृतिक कारणो से हिल उठाना । भूनाल। भूडोल | हस्ति घोर तिन्ह साजू । - जायसी (शब्द०)। जलजता। दूंजा-तज्ञा पुं० [हिं० भूनना] १. भूना हुप्रा अन्न । घवेना । विशेप-यद्यपि पृथ्वी का ऊपरी भाग बिलकुल ठंढा हो गया है, २. भड़भूजा। तथापि इसके गर्भ मे प्रभो बहुत पधिक आग तथा गरमी है। -सशा लो० [ देश० ] दे० 'भू' । यह भाग या गरमी कई रूपो में प्रकट होती है, जिसमे से पूंडरी-तज्ञा स्री० [ स० भू+हिं० ड+री (प्रत्य॰)] वह भूमि जो एक रूप ज्वालामुखी पर्वत भी है। जब कुछ विशेष कारणों से भूगर्भ की यह अग्नि विशेष प्रज्वलित अथवा शीतल होती जमीदार नाऊ, वारी, फकीर वा किसी सबंधी को माफी के तौर पर देता है। है. तब भूगर्भ मे अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं जिनके कारण पृथ्वी का ऊपरी भाग भो हिलने या कांपने लगता मुंडिया-संज्ञा पु० [हिं० मूंडरी ( = माफी की जमीन ] वह व्यक्ति जो मगनी के हल बैतों से खेती करता हो। है। इसी को भूकंप कहते है। कभी तो इस कंप का मान इतना सूक्ष्म होता है कि साधारणतः हम लोगों को विना मूंडोल-संञ्चा पु० [ स० भू+हिं० ढोलना] दे० 'भूकप' । यंत्रों को सहायता के उसका ज्ञान भी नहीं होता, और कभी मुंभर-संज्ञा पु० [ देश० ] दे० भुरि' । उ०-पंथिहि कहा धूप प्रो इतना भीषण होता है कि उसके कारण पृथ्वी मे बड़ी बड़ी छाहाँ । चलै जरत पग भूभर माहाँ ।-चित्रा०, पृ. ८६ | दरारें पड़ जाती हैं, बड़ी बड़ी इमारतें गिर जाती हैं और फ्रूभाई-संज्ञा पुं० [स० भू+भाई ? ] वह मनुष्य जिसे गांव का यहाँ तक कि कभी कभी जल के स्थान में स्या और स्वल के स्वामी किसी दूसरे स्थान से बुलाकर अपने यहाँ बसावे और स्थान में जल हो जाता है। कुछ भूकपों का विस्तार तो दस उसे निर्वाह के लिये कुछ माफी जमीन दे । बीस मील तक ही होता है और कुछ का सैकड़ों हजारों ।