पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४५६

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भेभम भेपजकृत सिरका भेद कादि जनू माने । कमल जो भए रहहिं भेलक-संज्ञा पुं० [सं०] नाव [को०) । विकसाने ।-जायसी (शब्द०)। भेलन-संज्ञा पुं० [सं० ] तैरना । परना [को०) । भेभम-सज्ञा पुं॰ [ देश० ] एक प्रकार का बहुत छोटा और पतला भेलपां-तज्ञा पुं॰ [ स० तभिल ] मेल । संग। उ०-भणियाँ सू वांस जो हिमालय में होता है। इसे गिाल' वा 'निगाल' भेलय नही, हु रकणियो सू हेत ।-याँको० ग्र०, भा० २, भो कहते हैं । बंगाल में 'निगाली' इसी बांस की बनती है । पृ० १॥ भेम्या-संज्ञा पु० [सं० भूमिय ? ] दे० 'भूमिया' । उ०-फुर- भेलना-त्रि० स० [सं० भेदय प्रा० भेल ] भग करना । विनाश मान गए जैसलमेर | भेम्या भाटी भए जेर |-पृ०रा०, करना । तोड़ना। उ०-कलिकाया गढ़ भेलसी छीज, दसौ १. ४२३ । दुवारो रे ।-दादू०, पृ० ६८६ । भेय-मक्षा पु. [ सं० भेद, प्रा० भेष ] दे० 'भेद' । उ०-पायो परै भेलाल-संज्ञा पु० [हिं० भेंट या देशी ] १. भिड़त । २. भेट । न जाको भेय ।-नद न०, पृ० २६८ । मुलाकात । उ०—(क) कृष्ण सग खेलब बहु खेला। बहुत भेय-वि० [सं०] जिससे डरा जाय । भेतव्य (को०] । दिवस मह परिगो भेला ।-रघुराज (शब्द॰) । (ख) देउरा भेर-राज्ञा पु० [ स० ] द० 'भे)' । उ०-रिणतूर नफेरिय भेर को दल जीत बघेजा। तासो परचो एक दिन भेला। रुडै । गहरै स्वर ताम दमाम गुई।-रा० ८०. पृ० ३३ । -घराज (शब्द०)। भेरवा-सज्ञा पु० [ देश० ] एक प्रकार का खजुर जिसके पत्तों के रेशों भेला २-राज्ञा पुं० [सं० भत्तातक ] दे० 'भितावा'। से रस्सियां बनती हैं। भेला-संञ्चा पु० [हिं०] वडा गोला या पिंड । जैसे, गुड़ का भेला । विशेप-यह भारत के प्रायः सभी गरम प्रदेशों में पाया जाता भेली-संज्ञा स्त्री॰ [ ? ] १. गुड या और किसी चीज की गोल है। इसे पाछने से एक प्रकार की ताडी भी निकलती है बट्टी या पिंडी । जैसे, चार भेली गुड़ । २. गुड़ । (क्व०) । जिसका व्यवहार बंबई और लका में बहुत होता है । भेलुक-सज्ञा पु० [सं० ] शिव का एक गण । भेरा-संञ्चा पुं० [ देश० ] मध्य तथा दक्षिणी भारत का मझोले मेलो-सञ्ज्ञा पुं० [गुज० भेलवु'] दे० 'भेला"। उ०-ता पाछे श्राकार का एक पेड़ जिसे भीरा भी कहते हैं। वह बहू दूसरे दिन तें थोरो थोरो माखन भैलो करति जाती। विशेप-इस पेड से लकड़ी, गोंद, रंग और तेल इत्यादि पदार्थ -दो सौ बावन० पृ०४। निकलते हैं । इसकी लकड़ी मेज, कुर्सी, खेती के पौजार और भेव-सञ्ज्ञा पुं० [स. भेद, प्रा० भेप्र] १ ममं की बात । भेद । तस्वीरों के चौखटे प्रादि बनाने के काम मे थाती है, पर रहस्य । उ०-वास्तवीक नृप चल्यो देव वर वामदेव बल । जलाने के काम की नहीं होती, क्योकि इससे धूप्रा बहुत जरासंध नरदेव भेव गुनि मति प्रभव मल ।-गोपाल अधिक निकलता है। भेरा (शब्द०)। २. वारी। पारी। उ०-चौको दै जनु अपने -संज्ञा पु० [सं० भेलक ] दे० 'बैडा'। उ.-भेरे चढ़िया झाँझरे भवसागर के माहिं । -कबीर (शब्द॰) । भेव । बहुरे देवलोक को देव । -केशव (शब्द०)। भेरि, भेरी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स० ] बडा ढोल या नगाड़ा । ढक्का । भेवना-क्रि० स० [हिं० भिगोना ] भिगोना। तर करना। दुंदुभो । उ-ताल भेरि मृदग बाजत सिंधु गरजत जान । उ०-प्रति प्रादर अनुराग भगति मन भवहिं ।- तुलसी चरण० बानी, पृ० १२२ । (शब्द०)। भरीकार-संज्ञा पु० [स० भेरी+कार (प्रत्य॰)] [स्रो० भेशल-मा पु० [ म. वेप] दे० 'वेष' । भेरिकारी] भेगी बजानेवाला। उ०-नटिनि डोमिनी भेपर-संशा पु० [स० वेप ] दे० 'वेष' । ढोलिनी सहनाइनि भेरिकारि ।-जायसी (शब्द॰) । भेष-सशा पु० [सं० वेप ] १. किसी विशिष्ट संप्रदाय का साधु भेरुंड'--वि० [ स. भेरुण्ड ] भयानक । खौफनाक । संत । ( साधुपों की परि०)।२ ३० भेम' । भेरुंडर- संज्ञा पु. [ स. ] १. एक प्रकार का पक्षी । २. गर्भ धारण भेपार-संज्ञा पु० [सं० भैत, प्रा० भिक्ख ] भिक्षा । भोख । 3०- करना । ३. भेड़िया प्रादि हिंस्र जतु । कुकुम सुनीर छुटि लग्यो चारु । नग रतन घरे मन हेम थारु । भेरुंडक-संज्ञा पुं० [सं० भेरुण्डक ] भेड़िया । सियार [को०] । उर बीच रोमराजीव रेष । गुर राह मेर मधि चल्यो भेष । -पृ० रा०,२३०६। भेरुंडा-संशा श्री० [ मा भेरुण्डा ] १. एक यक्षिणी का नाम | २. भगवती काली का एक रूम को०] । भेपज-रज्ञा पु० [स०] १. प्रौषध । दवा । ३. चिकित्सा। उपचार (को०) । ३. जल । पानी । ४. सुख । ५. विष्णु । भेल-संचा पु० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषि का नाम । २. नाव । नौका । भेरा (को०)। भेषजकरण-संज्ञा पुं० [स०] प्रौषधनिर्माण । दवा तेयार भेल-वि० १. कादर । डरपोक । भीरु। २. चंचल ३. मुखं । करना (को०] । बेवकूफ । ४. लंबा । उच्च । तुग (को०) । ५. द्रत । क्षित्र । भेपजकृत -वि० [सं०] चिकित्सित । उपशमित । नीरोग किया तुणं । सत्वर (को०)। हुप्रा [को०] ।