भ्रष्ट। --- मदा ५.३५ मदिरपशु में पड़े। ऐसी संकाति मे संक्रमणानंतर तीन दंड तक पुण्य मंदाति होती है। इस रोग मे अन्न न पचने से अतिरिक्त काल होता है। २. उल्लोक रंज । लताकरंज । रोगी का सिर और उदर भारी रहता है, उसे मतलो मदा-वि० [स० मन्द ] [ श्री० मदो ] १. धीमा । मंद । पाती है, शरीर शिथिल रहता है और पसीना आता है। क्रि० प्र०—करना ।-पड़ना ।—होना । यह रोग दुःसाध्य माना जाता है । २. ढोला । शिथिल । ३. सामान्य मूल्य से कम मूल्य पर बिकने- मदात्मा-वि० [सं० मन्दात्मन ] १. मंद विचारवाला । मूर्ख । निम्नीच (को०] । वाला । जो महंगा न हो। जिसका दाम थोड़ा हो । सस्ता । उ.-मधुकर ह्यां नाहिन मन मेरो......। को सीखै ता बिनु मदादर-वि० [सं० मन्दादर ] उपेक्षा करनेवाला। प्रादर न सुनु सूरज योगज काहे केरो । मंदो परेउ सिधाउ अनत ले यहि करनेवाला [को०] । निर्गुण मत मेरो।—सूर (शब्द॰) । ४. खराब । निकृष्ट । मदान-सञ्ज्ञा पु० [ ? ] जहाज का अगला भाग । (लश०) । उ.-योग वियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम मदानल-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० मन्दानल ] मंदाग्नि । भ्रमर्फदा । -तुलसी (शब्द०)। ५. बिगड़ा हुआ । नष्ट । मदानिल-सञ्चा पु० ( स० मन्दानिल ] धीमी हवा । मंद वायु । मदाना-क्रि० प्र० [हिं० मदा+ना (प्रत्य॰)] मद पड़ना । म दाइण-संज्ञा बी०स० मन्दाकिनी] 'मंदाकिनी। धीमा होना । मंदा होना। उ०-काटल आवध सूझ कर मन मदाइण बन्न ।-बांकी। प्र०, भा० ३, पृ०२८। मदामणि-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स० मन्दामणि ] मिट्टी का बड़ा पात्र या झारी [को॰] । मदाक-संज्ञा पुं० [सं० मन्दाक ] १. प्रवाह । घारा। २. प्रार्थना । स्तवन को०] । मदार-सञ्ज्ञा पु० [सं० मन्दार ] १. स्वर्ग के पाँच वृक्षो मे से एक देववृक्ष । २. फरहद का पेड़ । नहसुत । ३. पाक । मदार | मदाकिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दाकिनी ] १. पुराणानुसार गंगा ४. स्वर्ग । ५. हाथी । ६. धतूरा । ७. हिरण्यकशिपु के एक की वह धारा जो स्वर्ग मे है । ब्रह्मवैवतं के अनुमार इसकी धार एक अयुत योजन लंबी है। २. श्राकाशगंगा। ३. एक पुत्र का नाम । ६. मंदराचल पर्वत । १०. विध्य पर्वत के किनारे के एक तीर्थ का नाम । छोटी नदी का नाम जो हिमालय पर्वत मे उत्तर काशी में बहती है और भागीरथी में मिलती है। ४. महाभारत, मदारक-संज्ञा ० [सं० मन्दारक ] दे॰ 'मंदार' को०] । रामायण आदि के अनुसार एक नदी का नाम जो चित्रकूट मदारमाला-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं० मन्दारमाला] १. वाईस अक्षरो के के पास वहती है। इसे अब पयस्विनी कहते हैं। उ०-राम एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में सात तगण कथा मंदाकिनी, चित्रकूट चित चारु । तुलसी सुभग सनेह और अंत में एक गुरु होता है। जैसे,-मेरी कही मान बे बन, सिय रघुबीर विहारु । -तुलसी (शब्द०)। ५. हरिवंश मीत तू, जन्म जावै वृथा भापको तार ले। २. मंदार के के अनुसार द्वारका के पास की एक नदी का नाम । ६. पुष्पो की माला (को०)। संभाति के सात भेदों मे से एक । ७. बारह अक्षरों की मदारव-सञ्ज्ञा पु० [स० मन्दारव ] मंदार का वृक्ष । मंदार किो०] । एक वर्णवृत्ति जिसके प्रत्येक चरण मे दो नगण और दो रगण मदारषष्ठी-संज्ञा स्त्री॰ [ स० मन्दारपष्ठी ] एक व्रत जो माध होते हैं ( 1, sis, sis ) | शुक्ल षष्ठी के दिन पड़ता है । मदाक्रांता-संञ्चा सी० [ सं० मन्दाक्रान्ता] सत्रह अक्षरों के एक मदारसप्तमी-सज्ञा स्त्री० [ स० मन्दारसप्तमी ] माघ शुक्ल पक्ष की वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में मगण, भगण, सप्तमी तिथि [को०] । नगण और तगण तथा अंत में दो गुरु (sss || SS SS ss) होते हैं। अर्थात् ५, ६, ७, ८ और है तथा १२ मार मदारु-संज्ञा पुं॰ [सं० मन्दारु ] मंदार । मदार [को० । १३ भक्षर लघु और शेष गुरु होते हैं। जैसे,-मेरी भक्ती मदालसा-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'मदालसा'। सुलभ तिहिं, को शुद्ध, है बुद्धि, जाकी। म दिकुक्कुर-~-सञ्चा पु० [सं० मन्दिकुक्कुर ] एक प्रकार की मछली । मदाक्ष-वि० [स० मन्दाक्ष] १. कमजोर दृष्टिवाला । २. संकुचित मदिमा-संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दिमन् ] शिथिलता | सुस्ती । मंदता । दृष्टिवाला । धर्मीला । लजीला [को०)। ढीलापन [को०] । म दाक्ष-संज्ञा पुं० लज्जा । शर्म । मंदिर-संज्ञा पु० [सं० मन्दिर ] १. वासस्थान । २. घर । उ०- मदाग्नि-संज्ञा स्त्री० [सं० मन्दाग्नि ] एक रोग जिसमें रोगी की जंसवे मंदिर देहली धनि पैक्खिन सानंद ।-कीर्ति०, पृ० पाचनशक्ति मंद पड़ जाती है और अन्न नहीं पचा सकती। ३२ । ३. देवालय । ४. नगर । ५. शिविर । ६. शालिहोत्र बदहजमी । अपच । के अनुसार घोड़े की जांच का पिछला भाग । ७. समुद्र । ८. विशेप-हारीत का मत है कि मंदाग्नि वात और श्लेष्मा शरीर (को०) । ९. एक गंधर्व का नाम । से होती है। माधवनिदान के मत से कफ की मधिकता से मदिरपशु-संज्ञा पुं० [सं० मन्दिरपशु ] बिल्ली।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४८६
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