पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/५०६

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मझम ३७४५ मटकाना . जाती है। मुहा० -मझधार में छोड़ना = (१) किसी काम को बीच में लगा रहता है और जिमसे चमड़े पर का खुरखुरापन दूर ही छोड़ना । पूरा न करना (२) किसी को ऐसी अवस्था किया जाता है । ३. ३० मा । में छोड़ना कि वह न इधर का रहे न उधर का । मझेला-वा पु० [देश॰] । भमेला। मझा-संज्ञा पु० [अ० मजहब ] दे० 'मजहर' । उ० -हिंदू तुल्क मझोला-वि० [सं० गव्य, प्र० मज्भ+हिं० ग्रोला (प्रत्य॰)] मझब में लागो सुद्धि बिसरि गइ हाल |-गुलाल०; [वि. तो० समोली] १. मिला। बीच का। मध्य का। पृ० ४६। २. जो प्राकार ने विचार से न बहुत बड़ा हो भौर न बहुत मझरा सिंगही-संश श्री० [ देश० ] बैलों की एक जाति । छोटा । मनग याकार का। ममला-वि० सं० मध्य, प्रा० मझम + हिं० ला (प्रत्य॰)] मझोलो-संञ्चा स्त्री० [हिं० मझोला ] १. एक प्रकार की वैलगाड़ी। मध्य का । बीच का । जैसे, मझला भाई । २. टेकुरी की तरह ए मौजार जिससे जूते की नोक सी मझाना-क्रि० स० [सं० मध्य ] प्रविष्ट करना । बीच में धपाना । घुसाना। मद-पंज्ञा पुं० [हिं० मटका या माट ] मिट्टी का बड़ा पात्र मझाना@R-क्रि० न० प्रविष्ट होना । पैठना । उ०-जहाँ जहाँ जिसमें दूध दही रहता है। मटका | मटकी। उ०-तौ लगि नागरि नवल गई निकुंज मझाइ ! तहाँ तहाँ लखियत अजी गाय बंबाय उठी कवि देव बबु न मध्यो दघि को मट | रही वही छबि छाइ।-स० सप्तक, पृ० ३५१ । -देव (शब्द०)। मटक-10 वी • [ स० मट (= चलना)+हिं० क (प्रत्य॰)] १. मझार@f-फि० वि० [सं० मध्य, प्रा० मउम+हिं० श्रार (प्रत्य०)] गति । चात। उ.-कुल लटक सोहै भृकुटी मटक मोहै वीच में । मध्य में । भीतर । उ०—(क) सोवत जगत डगत अटकी चटक पट पीत फहरान की!-दीनदयाल (शब्द०)। मनमोहन लोचन चित्र मझार ।-श्यामा०, पृ० ८५ । २. मटफने की किपा या भान । उ०-वह मटक के साथ (ख) हेरत दोउन को दोऊ औचकहो, मिले प्रानि के कुज सबकी ओर पीठ करके बड़ी तेजी से दूसरे कमरे में चली मझारी।-प्रेमघन, भा० १, पृ० १६७ । गई।-जिप्ती, पृ० २७० । मझावना-क्रि० प्र०, क्रि० स० [हिं० समाना] दे० 'मझाना' । यौ०-चटक मटक । माझया-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+ हिं० इया (प्रत्य॰)] मटकना-कि० अ० [स० मट ( = चलना)] १. अंग हिलाते हुए लकड़ो की वे पट्टियाँ जो गाड़ी के पेंदे में लगी रहती हैं। चलना | लचककर नखरे ते चलना । (विशेषतः स्त्रियों का)। मझियाना-कि० अ० [हिं० मॉझी + इयाना (प्रत्य॰) 1 नाव २. अंगो अर्थात् नेत्र, भृकुटी, उँगली प्रादि का इस प्रकार खेना। मल्लाही करना । उ०-प्रथमहि नैन मलाह जे लेत संचालन होना जिसमें कुछ लचक या नखरा जान पड़े । ३. सुनेह लगा। तब मझियावत जाय के गहिर रूप दरियाइ । हटना | लौटना। फिरना । उ०-श्याम सलोने रूप में परी -रसनिधि (शब्द०)। मन परयो । ऐसे ह्र लटक्यौ तहाँ ते फिरि नहिं मटक्यो मझियाना-कि० अ० [सं० मध्य + इयाना (प्रत्य॰)] मध्य में वहुत जतन मैं कर यो।-सूर (शब्द०)। ४. विचलित होना । होकर माना । बीच में होकर निकलना । उ०-सपने हू पाए हिलना । उ०-उतर न देत लोहनी मौन ह रही री सुनि न जे हित गलियन मझियाइ। तिन सों दिल को दरद कहि सब बात नेरहू न मटकी ।—सूर (पाब्द०)। मत दे भरम गमाइ ।-रसनिधि (शब्द०)। मटकनि-संशा घी० [हिं० मटकना] १. गठि । पाल । २. मझियाना-क्रि० स० मध्य मे से निकलना ! वीच में से ले जाना । मटकने का भाव । उ०-भृकुटी मटकनि पोत पट चटक लटकती चाल । -विहारी (शब्द॰) । ३. नाचना । नृत्य । मझियाराहु-वि० [सं० सव्य, प्रा० म+हिं० इयारा (प्रत्य॰)] ४. नखरा । मटका बीच का। मध्यम। मटका-मंचा पु० [हिं० मिट्टो+क (प्रत्य॰)] मिट्टी का बना ममु-सर्व० [स० मह्यम् ] मेरा । हमारा । २. मैं । अहम् । हुप्रा एक प्रकार फा वडा घड़ा जिसमे अन्न, पानी इत्यादि ममुआ-सग पुं० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+ हिं० उपा (प्रत्य॰)] रखा जाता है। मट । माट । उ०-ले जाती है मठका बड़का, हाथ में पहनने को मठिया नामक चूड़ियों में कोहनी की ओर मैं देख देख घोरज धरता हूँ। कुकुर०, पृ. ३२ । पड़नेवाली दूसरी चड़ी जो पछेला के वाद होती है । मटकाना-क्रि० स० [हिं० मटकना का सक० ] नखरे के साथ मझेरू-संज्ञा पुं० [सं० मध्य, प्रा० मझ+ हिं० एरू (प्रत्य॰)] अगों का संचालन करना। यांख, हाप आदि हिलाफर कुछ जुलाहों के अड़ी नामक अौजार की बीच की लकड़ी । चेष्टा करना । चमकाना । जैसे, हाय मटकाना, प्रासें ममेला-संक्षा पु० [देश॰] १. चमारों का लोहे का एक अौजार मटकाना । उ०-भृकुटी मदज्ञाय गुगल के गाल में मग्री जो एक वालियत का होता है। इससे जूते का तला सिया ग्वाति गढ़ाय गई।-मुबारस (शब्द०)। जाता है। २. लोहे का एक औजार जिसमें लकड़ी का दस्ता मटकाना-क्रि० स० दूसरे को भटकने में प्रवृत्त करना।