पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/९९

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बइसना ३३३८ घर ध्यान 1 वइस; गुज. बेसबुं] वैठना । उ०-(क) खेला मेल्ह्या मांडली विशेष – इसका पेड ऊंचा और लकी दृढ़ होती है । इसका फल बइस सभा मांहि मोहेउ छइ राध।-वी० रासो, पृ० ३। लवा और पतला होता है जिसमें छह से पाठ नौ पगुल (ख) बन खंड काली कोईली। बइसती अंब कइ चंप की लवे तीन चार दल होते है। यह ऊपर कुछ ललाई लिए मौर डालि ।-बी० रासो, पृ०६५। भीतर पीलापन लिए भूरे रंग का होता है । फल सिर के दाद बइसना २-संज्ञा पुं० बैठने की क्रिया । उपवेशन । बैठना । में पीसकर लगाए जाते हैं । इसे भकचदन भी कहते हैं । वइसाना, बइसारना-कि० स० [ अप० वइसारण ] दे० चकचक पु-संशा पु० [स० चक्र + चक्र ? ] एक प्रकार का शास्त्र । 'वैसारना उ०-प्रांचलो गैहती वइसाड़ी छह औरण ।-वी० उ०-बकरके चलाने दुई दिसि घावै हयन कुदावें फूल भरे । गसो, पृ० ४५॥ -पद्माकर ग्रं॰, पृ०२८ । बइसुरी- दे० 'वाचंदन'। -सज्ञा पु० [ देश० ] खर पतवार । वकचन-संज्ञा पु० [ स० चकचन्दन बइहनड़ी-सज्ञा सी० [सं० भगिनी, प्रा० बहिणिश्रा ] भगिनी । चकचर-संजा दे० [सं० ] ढोगी व्यक्ति । वह जो बक को सी वृत्ति- वहन । उ०-भूली है बाहनही इणी बीसास ।-वी. वाला हो को०] । रासो, पृ०७६ । बकचा-संशा पु० [हिं० ] दे० 'बकुना' । वईठनाg+-क्रि० प्र० [ अप० वइट ] दे० 'बैठना' । उ०-सखी बकचिंचिका-संज्ञा स्त्री० [ मं० चकचिञ्चका ] एक प्रकार की सरेखी साथ बईठी । तपै सूर ससि भाव न दीठी।- मछली। इम मछली मुह की जगह लबी पोंच सी होती जायसी (शब्द०)। है। कौवा मछली। बउर-सञ्ज्ञा पुं० [हिं ] दे० 'बौर' वा 'मोर'। बकची-सजा ० [स० बकाची] १. एक प्रकार की मछली । बउराg-वि० [हिं० सं० वातुल ] दे० 'बावला' । २. दे० 'बकुची'। बउरानाg+-क्रि० प्र० [हिं० ] दे॰ 'बोराना' । बकचुन-संज्ञा पुं० [सं० बाकुची ] एक प्रकार का फूलनेवाला बउलानाg+-क्रि० स० [ प्रा० बोल्ल, बुल्ल ] बुलाना । उ०- पौधा । उ०-जाही जूही वकचुन लावा । पुहुप मुदरसन लाग मान पधिक तिहा पापीयो। कुंवर बउलावी वीसल राइ । सोहावा ।—जायसी ग्र० ( गुप्त ) पृ० ३५ । बी० रासो, पृ० १०७ । वकजित्-सज्ञा पु० [सं०] १. कृष्ण । २. भीम [को०] । वउहारी -संज्ञा सी० [देश॰] दे० 'बुहारी' । बकठाना-क्रि० स० [सं० विदुण्ठन ] किसी बहुत कसैली चीज, बी-संज्ञा स्त्री० [सं० बधू, प्रा० यहु, बहू बँग० बऊ ] बधू । बहू । के फूल या तेदू प्रादि के फल, खाने से मुह का उ०-पंजाबी वऊ के निये प्राशुन (=पजावी सूख जाना, उसका स्वाद बिगड जाना और जीभ का सुकड बहू को ले पाइए )।-भस्मावृत०, पृ० ७१ । जाना। वएस-संज्ञा पु० [सं० वयस ] उम्र । अवस्था । उ०-बारि वकतर-सज्ञा पुं० [फा०] एक प्रकार का जिरह या कवच जिसे बएस गो प्रीति न जानी। तरुनी भइ मैमंत भुलानी । योद्धा लडाई मे पहनते हैं। उ०-कबिरा लोहा एक है गढने जायसी० न० (गुप्त), पृ० ३२५ । मे है फेर । ताही का बफतर बना, ताही का धामशेर ।- वकी-सज्ञा पुं० [ म० वक ] १. बगला । २. प्रगस्त नामक पुष्प का कबीर (शब्द०)। वृक्ष । ३. कुवेर । ४. बकासुर जिसे श्रीकृष्ण ने मारा था । विशेप-यह लोहे की कड़ियों का बना हुपा जाल होता है तथा ५. एक राक्षस जिसे भीम ने मारा था। ६ एक ऋषि का इससे गोली पौर तलवार से वक्षम्पल की रक्षा होती है। नाम । ७. धोखा | छल । फरेब (को०) । ८. दे० 'बकयत्र' । यौ-बकतरपोश - कवचधारी । बकर-वि० बगले सा सफेद । उ० --अहहिं जो केश भंवर जेहि बकता-वि० [ मं० वक्तृ, वक्ता ] दे० 'वक्ता' । उ०-(क) श्रोता वसा । पुनि वक होहिं जगत सब हमा।-जायसी । (को०)। बकता ज्ञाननिधि कथा राम के गूढ ।-मानस, १६३० । वकर-संज्ञा स्त्री० [सं० वच, हिं० बकना ] घबड़ाहट । प्रलाप । (क) कथता बकता मरि गया, मूरख मूढ़ अजान । -कबीर सा० स०, पृ० ८८ । क्रि० प्र०—लगना। बकताई.--संज्ञा स्त्री० [हिं० वकता+ ई (प्रत्य॰)] वक्तृता । बकवाद । यौ०-बकबक वा बक्रमक = बकवाद । प्रलाप । व्यर्थ वाद । बकवास । कलजलूल बातें। उ०-नाम नाहि तर मॅह उ०-ऐसे बकझक खिझलायकर सुरपति ने मेघपति को चीन्है, बहुत फहै वकताई।-जग० श०, भा॰ २, पृ०६०। बुलाय भेजा । लल्लू ( शब्द०)। बकतिया-सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की छोटी मछली जो क्रि० प्र०—करना ।-मचाना । उत्तर प्रदेश, बंगाल और प्रासाम की नदियों में होती है। वकचन-संज्ञा पुं० [सं० वकचन्दन ] एक वृक्ष का नाम जिसकी बकधूप-सज्ञा पु० [स०] एक प्रकार का धूप या सुगधित द्रव्य [को०] । पत्तियां गोल और बड़ी होती हैं। बकध्यान-मंडा पुं० [सं० वकध्यान ] ऐसी चेष्टा या मुद्रा या ढंग जैसे कटहल पत्नी। बकवाद ।