मास्टरी ३१२६ महाजनीन HO । एल-एल० एम० । मास्टर श्राव् साइन्स = विज्ञान की एक चबूतरा जिसपर लोग चांदनी मे वैग्ने है। ४ तरबूज । ५. डिग्री । एम० एस-मी० । मास्टर की = एक विशिष्ट ताली जिससे चकोतरा नीवू । विभिन्न कुजियो से खुलनेवाले बहुत से ताले खुल जायं । मास्टर- माहन-सज्ञा पुं॰ [ सं० ] ब्राह्मण जो अवध्य होता है। पीस = अत्यत उत्कृष्ट वा कनामय । मास्टरशिप = प्रभुत्व । प्रधानता । माहना - क्रि० अ० [हिं०] दे० 'उमाहना' । मास्टरी-सञ्ज्ञा स्त्री० [अ० मास्टर + ई (प्रत्य॰)] १ मास्टर का माहनामा-सज्ञा पु० [ फा० माइनामह ] मामिक पत्र । काम । अध्यापकी। २ मास्टर का भाव । माहनीय-सञ्ज्ञा पुं॰ [ ] ब्राह्मण । मास्य-वि० [स०] महीने भर का । जो एक महीने का हो । मासीन । माहर'-सज्ञा पुं॰ [ स० माहिर (= इद्र)] इद्रायन । इनारू । माह 3-अव्य० [स० मध्य, प्रा० मज्झ ] बीच मे। उ०—यह मुहा०-माहर का फल = जो देखने मे सुदर हो, पर दुर्गुणो से शिशुपाल भजत श्री दीनवधु ब्रजनाथ कवै मुख देखिहीं। कहि भरा हो। रुक्मिणि मन माहं सर्व सुख लेखिहौं ।-मूर (शब्द॰) । माहर'-वि० [अ० माहिर ] दे० 'माहिर' । माह'-मञ्ज्ञा पु० [ फा०] १ मास । महीना। उ० सखि हे हामारि माहरुख वि० [ फा०] चाँद की तरह मुखवाला । चद्रानन [को०] । दुखेर नाहि अोर । ए भर वादर माह भादर, शून्य मदिर मोर । माहरू-वि० [फा०] दे॰ 'माहरुख' । -विद्यापति, पृ० ४७३ । २ चद्रमा। चाँद । उ०-छिपी थी माहली सञ्ज्ञा पुं॰ [हिं० महल ] १ वह पुरुप जो अत पुर मे पाता सो एक माह मद की छवीली। मशाता हो ईदी निगारत जाता हो। महली । खोजा । २ सेवक । दाम । उ०—तुलसी दिखाया ।—दक्खिनी०, पृ० ७३ । सुभाइ कहै नहीं किए पक्षपात कौन ईस कियो, कोस भालु माह-मशा पु० [सं० माप, प्रा० माह ] माप । उटद । खास माहली । —तुलसी (शब्द॰) । माह3--शा पु० [ स० माघ, प्रा० माह ] माघ नाम का महोना । माहवार' क्रि० वि० [फा० ] प्रतिमास । महीने महीने । उ०—(क) गहली गरव न कीजिए सम सुहागहि पाय । जिय माहवार---वि० हर महीने का । मासिक । की जीवनि जेठ सो माह न छाहं सुहाय ।-विहारी (शब्द॰) । माहवार-सज्ञा पुं० महीने का वेतन । (ख) नाचगी निकसि शशिवदनी विहंसि तहाँ को हमैं गनत मही माह मे मचति सी।-देव (शब्द॰) । माहवारी-वि० [फा० ] हर महीने का । मासिक । माहवाह@+-वि० [ स० मह + याहु ] वडे हाथोवाला । उ०-धूप माह-अव्य० [ स० मध्य ] दे॰ 'माहै'। उ० सोहत अलक दान क्रीत राम माहवाह मोटा घरणी ।-रघु० रू०, कपोल पर वढ छवि सिंधु अथाह । मनौ पारसी हरफ इक लसत पृ० २४७॥ पारसी माह । -प० सप्तक, पृ० ३४६ । माहवो, माहवौ-अव्य० [ सं० मध्य ] बीच बीच मे। उ०—माहवी माह'-सञ्ज्ञा पु० [देशी] कुद का फूल [को०। माहवी मोह्यो आइ ।-दादू०, पृ० ६०१ । माहकस्थलक-वि० [स०] १. माहकर यली मे रहनेवाला । २ माहकस्थली मे उत्पन्न । ३ माहकस्थली सबधी । माहकस्थली का। माहसोल-वि० [सं० महत् ] महान् । वडा । उ०-परस, कदमा चली जुगत भवभूम पर, माहसो नदी भव भुगत मेलें ।-रघु० माहकस्थली-सशा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन जनपद का नाम । रू०, पृ० २६०॥ माहकि-सञ्ज्ञा पुं० [स०] महक नामक ऋपि के गोत्र मे उत्पन्न गुरुए । माहाँल-अव्य [ हिं० ] दे० 'मह' । उ०-दीन्हेसि कउ बोल जेहि २ एक प्राचार्य का नाम । माहाँ।—जायसी ग्र०, पृ० ४। माहजबीं-वि० [फा०] प्रशस्त ललाटयुक्त । चांद जैसा उज्वल । चांद माहा-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० ] गाय [को०] । सा मुदर । उ०-किसो माहजवी माशूक की फुर्कत मे बेकरार है। --प्रेमघन०, भा॰ २, पृ० ६२ । माहाकुल-वि० [१] [वि॰ स्त्री० माहाकुजी] उच्च कुलोत्पन्न ऊंचे कुल मे उत्पन्न [को०)। माहत-सज्ञा स्त्री॰ [ सं० महत्ता ] महत्व । महत्ता । बडाई । माहाकुलीन-वि॰ [ माहताब-राज्ञा पुं० [फा०] १ चद्रमा। २ दे० 'महतावी' । ३ ] [वि॰ स्त्री० माहाकुलीनी ] श्रेष्ठ कुल वा चाँदनी। चांद्रका । उ०-बगल मे माहताब हो या श्राफताब, वश का । माहाकुल (को०] । या साकी हो या शराब ।-भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३६७ । माहाजनिक-वि० [सं०] [ वि० स्त्री० माहाजनिकी ] १. महाजनो अर्थात् व्यापारियो के लिये उचित । २ महान व्यक्तियो के माहताबो-सज्ञा पु० [फा०] १. दे० 'महताबी' । २ एक प्रकार लिये उचित । महाजनोचित [को०) । का कपडा जिसपर सूर्य, चद्रादि की सुनहरी या रुपहली प्राकृतियाँ बनी रहती है। ३. प्रांगन मे ऊंचा खुला हुआ महाजनीन-वि० [ म० ] [वि० सी० माहाजनीनी] दे० 'माहाजनिक' । ८-१८ म०
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/१५२
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