पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२३२

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३९४१ मूत्र मूहात्मा- वि० [ 1 म० 1 उ०-दिन बिताएं चाव मूठो भर चना । पर किसी को भी न मूढवाताहत - वि० [सं० मूढवाताहत ] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार मूठी मे रहे । -चुभते०, पृ० १६ । तूफान मे पडा हुआ ( जहाज या नाव )। मूड-सज्ञा पुं० [ से० मुण्ड ] दे० 'मूड' । उ०—ापन करे हाम मूड मूढसत्व-वि० [ स० मूढसत्व ] उन्मत्त [को०] । मुडयर्नु कामुक प्रम बढाइ। -विद्यापति, पृ० ५८४ । मूद - सञ्ज्ञा पुं० [सं० मूर्धा, प्रा० मूड्ढा ] एक प्रकार का ऊंचा मुहा०—मूड हिलाना = भूत या प्रानेव श्राने पर सर हिलाने की श्रासन । मोढा। उ०-मूढा गादी सामतन को दीने । -पृ० क्रिया । प्रभुनाना । हबुप्राना । उ०-जतर टोना मूंड हिलावन रा०,५७११७०1 तासांच न मानो।-चरण० बानी पृ० १११ । स० मूढारमन् ] निर्बोध । मूर्ख । अहमक । मूइना-क्रि० स० [ स० मुण्डन ] दे० 'मुंडना'। मूढी -पञ्ज्ञा स्त्री॰ [दश०] लाई । चावल की फरवी। उ०-मलेटरी- मूढ'-वि० [ स० मूढ ] १ अगन । मूर्ख। जडवुद्धि । बेवकूफ । वाले जमीन पर कबल बिछाकर बैठे हैं। मूढी फांक रहे हैं । अहमक । २ ठक । स्तव्य । निश्चेष्ट । ३ जिसे प्रागा पोछा -मैला०, पृ० २। न सूझता हो । ठगमारा। मून'-वि० [ म. J निवद्ध । बाँधा हुआ । सयत । मूढ---सञ्ज्ञा पु० [ ] योग मे चित्त की पांच वृत्तयो या अवस्थानो मूत-सज्ञा पु० [सं० मूत्र ] १ वह जल जो शरीर के विषैले पदार्थों मे से एक, जिममे चित्त तमोगुण के कारण तनायुक्त या स्तब्ध को लेकर प्राणियो के उपस्य मार्ग से निकलता है। पेशाब । रहता है। कहा गया है कि यह अवस्था योग के लिये अनुकूल विशेष-दे० 'भूत्र। या उपयुक्त नहीं होती। विशेष दे० 'चित्तभूमि' । मुहा०—मून निकल पडना = डर के मारे बुरी दशा हो जाना । मूढगर्भ -सज्ञा पुं॰ [ म० मूढगर्भ ] गर्भ का बिगडना जिससे गर्भस्राव जैसे,—उमे देखोगे तो मूत निकन पडेगा । मूत से निकलकर आदि होता है । विगडा हुआ गर्भ । गू में पडना = और भा बुरी दशा मे जा पडना । विशेप-मुश्रु न मे लिखा है कि रास्ता च नने, सवारी पर चढने, २ पुत्र । सतान । ( तिरस्कार ) । गिरने पड़ने, चोट लगने, उलटा लेटने, मल मूत्र का वेग रोकने, रूखा, कड वा या तीखा भोजन करने, वमन विरेचन, हिलने- मूतना क्रि० अ० [हिं० मूत + ना (प्रत्य॰)] शरीर के गदे जल को उपस्थ मार्ग से निकालना। पेशाब करना। उ०-तिन को डोलने श्रादि से गर्भवधन ढीला हो जाता है और उसको स्थिति विगड जाती है। इससे पेट, पार्व, वस्ति या द मे पीडा होती ग्राजु समाधि पर, मूतत स्वान सियार । -भारतेंदु ग्रं०, भा०३, है तथा और भी अनेक उपद्रव होते हैं । मूढगर्भ चार प्रकार का पृ० ३४०। होता है-कोल, प्रतिखुर, बीजक और परिघ । यदि गर्भ कील संयो० क्रि—देना ।—लेना। को तरह पाकर योनि मुख बंद कर दे, तो उसे 'कील' कहते मुहा०-मूत मारना= हर से मूत देना । मूत देना = डर से घबरा हैं । यदि एक हाथ, एक पैर और माथा बाहर निकले और बाकी देह को रहे, तो उने 'प्रतिखुर' कहते हैं। यदि एक हाथ और मूतरी -मशा पुं० [सं०] एक प्रकार का जगली कौवा । महताव । माथा निकले, तो 'बीजक कहलाता है, और यदि भ्रूण डडे महालत। की तरह पाकर अडे, तो वह गर्भ 'परिघ' कहलाता है। इसमे प्राय शल्यचिकित्सा की जाती है। मूतिव-सज्ञा पुं० [?] पार्यों से इतर एक जाति विशेष जिसका प्राचीन ग्र थो मे उल्लेख है। उ०-पुड़, मूतिव, पुलिंद, और शाबर मूढग्राह-सञ्ज्ञा पुं० [ स० मूढग्राह ] खन्त । गलत धारणा [को०] । भी अनार्य थे ।-हिंदु० सभ्यता, पृ० ७६ । मूहग्राहा-वि० [स० मृढया हैन् ] गलत अर्थ समझकर उसी पर मूत्र-सज्ञा पुं॰ [ सं० ] शरीर के विषैले पदार्थ को लेकर प्राणियो के दृढ रहनेवाला । दुराग्रही को०] । उपस्थ मार्ग से निकलनेवाला जल । पेशाव । मूत | मूदचेता-वि० [ स० मूढचेतस् ] जिसकी बुद्धि या मति मूठ हो । विशेप-मूत्र के द्वारा शरीर के अनावश्यक और हानिकारक क्षार, प्रज्ञ किो०] । अम्ल या और विपली वस्तुएं निकलती रहती हैं, इससे मूत्र का मूढता -संज्ञा स्त्री॰ [ स० मूढता] १ मूर्खता। अज्ञता । बेवकूफी । वेग रोकना बहुत हानिकारक होता है। कई प्रकार के प्रमेहो उ०- ऐसी मूढता या मन की। परिहरि रामभक्ति सुरसरिता मे मूत्र के मार्ग से विपली वस्तुप्रो के अतिरिक्त शर्करा तथा पास करत योस कन की।-तुलसी (शब्द॰) । दे० 'मूढत्व' । शरीर की कुछ धातुएं भी गल गलकर गिरने लगती हैं। प्रत. मूढत्व-सज्ञा पुं॰ [ स० मूढत्व ] १ उलझन । घबराहट । असमजस । मूत्रपरीक्षा चिकित्साशास्त्र का एक प्रधान अग पहले भी था २ अज्ञानता। मूढना । वेबकूफो। ३ मूढवात । शरीरस्थ पौर अब भी है। भारतवर्ष मे गोमूत्र पवित्र माना गया है और वायु । ४ बतौरी । गिल्टी (को०] । पचगव्य के अतिरिक्त पातुनो और ओपधियो के शोधने मे भी मूढप्रभु-सज्ञा पुं० [ सं० मूढप्रभु ] महामूढ । मूर्खराज (को०] । उसका व्यवहार होता है। वैद्यक मे गोमूत्र, महिपमूत्र, छागमूत्र, मूढवात-सञ्ज्ञा पुं० [ सं मूत्वात ] किसी कोश मे रुको घा बंधी हुई मेषमूत्र, अश्वमूत्र प्रादि सबके गुणों का विवेचन किया गया है वायु। पौर विविध रोगो मे उनका प्रयोग भी कहा गया है। स्वमूत्र जाना। ८-२८