मूत्रकृच्छ २६४२ मूत्राघात म ] 29 स० द्वारा चिपिन्ना का भी अनेक रोगो में विधान है। मूत्रदोष सूत्रपुट-सज्ञा पु० [१०] नाभि से नीचे का हिस्सा । आमाशय (को॰) । ने प्रामी, मूनकृन्य प्रादि अनेक रोग हो जाते हैं। मूत्रप्रसेक-नज्ञा पुं० [ २० ] मूचनली । मूत्रन्छ-म पु० [सं०] एक रोग जिनमे पेशाव बहुत कट ने मूत्रफला- नचा सी० [ म० ] करडी। या रक ककर योटा थोडा होता है। मूत्रगोव-यहा पु० [ स० ] एकनारगी पेशाव रक जाने का रोग । विशेप-अायुर्वेद के अनुसार यह रोग अधिक व्यायाम करने, मूत्रला'-वि० [२०] [वि० पुं० मूत्रल] पेपाद फगनेवानी (प्रोपवि) । तीव्र गोपच मेवन करने, बहुत तेज घोडे पर चटने, वह त खा अन्न खाने, अधिक मद्य सेवन करने तथा अजीर्ण रहने से होता मूत्रला-नडा लो० ककडी। है। मूत्रकृच्छ पाठ प्रकार का कहा गया है-वातज, पित्तज, सूत्रवर्ति- नशा पु० [सं०] अडगोथ । कफज, सानिपातिक, शल्यज पुरीपज, शुक्रज और अश्मरोज । मूत्रवर्धक वि० [ 'मूत्रल'। 'वातज' मे शिश्न ी वन्ति मे बहुत पीडा होती है पीर मूत्र मृत्रविनान-उझा पुं० [सं० ] मूत्रपरीक्षा पर वायुर्वेद का एक ग्रथ। थोडा थोडा पाता है। "पित्तज' मे पीला या लाल पेशाव पीडा विशेप-प्रायुर्वेद का यह ग य जानुकर्ण ऋषि का बनाया हुआ श्रार जनन के माथ उतरता है। ककन' में वस्ति और शिश्न कहा जाता है। इसमे मूत्रपरीक्षा करने की अनेक प्रणालियो का मे सूजन होती है और पेशाव कुछ भाग लिए होता है। मविस्तर वर्णन है। नरक मुश्रुत ग्रादि मे इस विषय का 'सान्निपातिक' में वार्ड के सब उपद्रव दिखाई देते है और यह विशेष विवेचन नहीं है, इससे नहीं कहा जा सकता कि यह प्रथ वहुत कष्टसाध्य होता है । 'सत्यज' मूत्र की नली में कांटे कहाँ तक प्राचीन है। श्रादि के द्वारा घाव हो जाने से होता है और इसमे बातज के मे लक्षण देखे जाते हैं। 'पुरीपज' में मलरोध होता है और मृत्रवृद्धि-पज्ञा की० [ स० अधिक मत्र उत्पन्न होना [को०] । वात की पीना के साथ पेशाव भी रक स्वकर आता है। मृत्रशुक्र-मज्ञा पु० [सं०] मूत्र के साथ एक निकलना (को०] । यक्रज' पदाप से होता है और इसके पेशाब मे वीर्य मिला मूत्रशूल-सज्ञा पु० [ ] मूत्रमार्ग मे होनेवाला दर्द (को०] । पाता है और पीडा भी बहुत होती है । 'अश्मरीज' अश्मरी मूत्रसग--मञ्ज्ञा पु० [सं० मूत्रसग ] एक प्रकार का मूत्ररोग जिसमें या पथरी होने से होता है और इसमे मूत्र बहत कष्ट ते उतरता पेशाव थोडा थोडा और रक्त के साथ होता है। पेशाव निकलते है। सुश्रुत के मत से शर्कराजन्य मूत्रकृच्छ भी कई प्रकार का समय इसमे दर्द भी होता है [को॰] । होता है । शर्करा भी एक प्रकार की अश्मरी ही है । मूत्रसाद-सञ्ज्ञा पुं० [ ] एक प्रकार का मूत्ररोग जिसमे कि चूर्ण मूत्रकोश--सञ्ज्ञा पुं० [ स० ] अडकोश। के समान या कई रगो का पेशाव हो । उ०-जब वह मूत्रक्षय-सहा पु० [सं० ] मूत्राघात रोग का एक भेद । उ०--बस्ति मूत्र शख का चूर्ण ऐसा वर्ण होय अथवा सर्व वर्ण का मे न्हे जो पित्त और वायु वे मूत्र को क्षय करें, और पीडा होय, इस रोग को मूत्रसाद कहते है ।-माधव०, पृ० १७७ । तया दाह होता है उनको मूअक्षय कहते है। मूत्राघात-सज्ञा पुं० [सं०] पेशाब वद होने का रोग। मूत्र का रुक पृ० १७६। मूत्रप्रथि- सज्ञा पुं० [सं० मूत्रप्रन्थि ] मूत्राघात का एक भेद । विशेप-वैद्यक मे यह रोग वारह प्रकार का कहा गया है- उ०-उममे पयरी के समान पीडा हो इस रोग को मूत्रग्रथि (१) वातकुडली, जिसमे वायु कुपित होकर वस्तिदेश कुडली कहते हैं । -माधव०, पृ० १७६ । के प्राकार मे टिक जाती है, जिससे पेशाब बंद हो जाता है। मूत्रग्रह-तरा पुं० [म.] घोडो का मूत्रमग रोग जिनमे भाग लिए (२) वातष्ठीला, जिनमें वायु मूत्र द्वारा या वन्ति देश मे गांठ योटा पेशाव पाता है। या गोले के आकार मे होकर पेशाव रोकती है। ३) वातवस्ति, मूत्रजठर-तशा पु० [सं०] मूयाघात से उत्पन्न एक दोष । उ०- जिसमे मूत्र के वेग के साथ ही वस्ति की वायु वस्ति का मुख रोक प्रयोवस्ति का रोध करनेवाले दम रोग को मूग्रजठर कहते हैं। देती है। (४) मूत्रातीत, जिसमें बार बार पेशाब लगता और -माधव०, पृ० १७५ । थोडा थोडा होता है। (५) मनजठर, जिसमे मूत्र का प्रवाह मूत्रदशक-सा पु० [सं०] हाथी, मेटा, कंट, गाय, वकरा, घोडा, रकन ने अधोवायु कुपित होकर नाभि के नोचे पीडा उत्पन्न भैमा, गदहा, मनुष्य और स्त्री इन दश के मूत्रो का समूह । करती है। (६) मूत्रोत्सग, जिसमे उतरा हुया पेशाब वायु को अधिकता से मूत्र नली या वन्ति मे एक बार रुक जाता है और मूत्रदोप-सरा पुं० [सं० ] पेशाप का रोग । प्रमेह फिो०] । फिर बडे वेग के साथ कभी कभी रक्त लिए हुए निकलता है। मूत्रनिरोध-संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'मूत्ररोच' । (७) मूत्रक्षय, जिनमे खुश्की के कारण वायु पित्त के योग स दाह सूत्ररतन- पु० [म.] १ मूत्र गिरना । २ गयमार्जार । गध- होता है और मूत्र सूख जाता है। (८) मूत्रग्र थि, जिसमे विलाव। वस्तिमुन्ख के भीतर पधरी की तरह गांठ सी हो जाती है और मूत्रपथ-सा पुं० [सं०] मूननली [को०)। पेशाव करने मे वहुत कष्ट होता है। (६) मूत्रशुक्र, जिसमें मूत्रपरीक्षा-सा को [ में० ] मूत्र को जांच । परीक्षण डाग मूत्र के मूत्र के साथ अथवा पो पीछे शुक्र भी निकलता है। (१०) दोपोको जानना। उप्णवात, जिलने व्यायाम या अधिक परिश्रम करने, और गरमी 1- मावव०, जाना।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२३३
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