पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२४४

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fo स० eo स० भृगनेखा ४००६ भूगिंद्र काया कठिन कमान है, खाँचै विरला कोइ। मार पचौ मृगला मृगाक-सञ्ज्ञा पुं० [स० मृगाइ ] १ चंद्रमा । उ०-दुजराजा शशधर दादू सूरा मोइ ।-दादू०, पृ० ३८० । उदधितनय ससाक मृगाक ।-नद० ग्र०, पृ० ११६ । २ एक मृगलेखा-मञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं० ] चद्रमा का धव्वा । रस जो सुवर्ण और रत्नादि मे बनता है और क्षय राग में मृगलोचन-सञ्ज्ञा पुं० [स० ] चद्रमा को०] । विशेष उपकारी होता है। विशेप दे० 'मृगाकरम' । उ०—(क) राम की रजाइ ते रसाइनी समीर मूनु उतरि पयोधि पार सोधि मृगलोचना-वि० सी० [ ] हरिण के समान नेत्रवाली (स्त्री)। के ससाक सो। जातुधान वुट पुट पाक लक जातरूप रतन जतन मृगलोचनी-वि० स्त्री० दे० मृगलोचना' । जारि किया है मृगाक सा । -तुलसी (शब्द०)। (ख) वियों मृगलोमिक-वि० [ ] ऊन का । ऊर्णनिमित । ऊनी । विराट के सुरारि राजरोग जानि जू । निमित्त तासु वैद ज्यों मृगव-सञ्ज्ञा पुं० [ 10 ] बौद्ध शास्त्रो के अनुसार एक बहुत बडी जरयो मृगाक ठानि जू ।-रघुनाथदास (शब्द॰) । सख्या का नाम । मृगाकरस-सज्ञा पुं० [सं० मृगाइरस ] एक प्रकार का रसौपध । मृगवधू-सज्ञा स्त्री॰ [ ] मृगी। हरिणी [को०] । विशेष—पारा एक भाग, सोना एक भाग, मोती दो भाग, गधक मृगवल्लभ-सज्ञा पु० [ म० ] कु दुरु तृण । दो भाग और सोहागा एक भाग, इन सब चीजा को कांजी मृगवारि-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० ] मृगतृष्णा का जल । उ०-सूते सपने में पीसकर नमक के भाँडे मे रखकर चार पहर पकाते हैं। इस ही सहै ससृत सताप रे। बूडो मृगवारि खायो जेवरि के साँप रस को चार रत्तो की मात्रा में सेवन करने से राजयदमा रोग रे ।--तुलसी (शब्द०)। नष्ट ही जाता है। राजमृगारु और महामृगाक रस भी होते है, मृगवाहन-सक्षा पु० [स०] १ वायु। पवन । २ स्वाति नाम का जिजमें द्रव्यो की संख्या अधिक होती है । नक्षत्र [को०] । मृगागना-सज्ञा स्त्री॰ [ सं० मृगाङ्गना ] मृगी। हरिणी। मृगवीथिका-सज्ञा स्त्री० [सं० ] दे॰ 'मृगवीथी' । मृगाडजा-सज्ञा स्त्री॰ [ स० मृगाण्डजा ] कस्तूरी । मुश्क (को०] । मृगवीथी-सशा स्त्री० [स०] १ ज्योतिष के अनुसार शुक्र की नौ मृगातक-सशा पुं० [सं० मृगान्तक ] चीता [को०)। वीथियो मे से एक जिसमे शुक्र ग्रह अनुरावा, ज्येष्ठा और मूल मृगा। -सहा पुं० [ स० मृग] हिरन । मृग। पर आता है। २ चद्रमा की वह स्थिति जव वह श्रवण, मृगा-सशा स्त्री० [ ] सहदेई का पौधा। शतभिपा और पूर्व भाद्रपदा से युक्त होता है (को॰) । मृगाक्षी-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] हरिण के से नेत्रोवाली स्त्री। मृगव्य-सञ्ज्ञा पुं० [स०] १ प्राखेट । मृगया। २ (धनुर्विद्या) लक्ष्य । निशाना (को॰] । मृगाजिन न-सञ्ज्ञा पुं० [ ] मृगछाला । मृगचर्म [को० । मृगाजीव-सञ्चा स्त्री० [सं०] १. वारुणी लता। २ कस्तूरी। मृगव्याध-सज्ञा पुं॰ [ स०] १ शिकारी । अहेरी। २ एक नक्षत्र । ३ शिव (को०] । ३ व्याध । शिकारी (को॰) । मृगशाव, मृगशावक-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] मृगछीना। हिरन का कोमल मृगाद, मृगादनसञ्चा पु० [स०] सिंह, चीता, बाघ इत्यादि वनजतु जो मृगो को खाते हैं। बच्चा। मृगादनी-सञ्ज्ञा जी० [सं०] १ इद्रवारुणी। इद्रायन । २. सहदेई । यौ०-मृगशावकनैनी - मृगछीने का तरह चचल नेत्रोवाली। ३ ककडी। मृगशिरा-सञ्चा पु० [ स० मृगशिरस् ] सत्ताइस नक्षत्रो मे से पांचवां मृगाधिप, मृगाधिराज-सज्ञा पुं० [ स० ] सिंह । शेर । नक्षत्र। मृगाराति-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १. कुत्ता । २ सिंह (को०)। ३ सिंह विशेष-इसके अधिपति चद्रमा है और यह प्राडा या तिर्यड्मुख राशि (फो०)। नक्षत्र है। यह तीन तारो से मिलकर बना हुआ और बिल्ली मृगारि- सझा पुं० [सं०] १ सिंह । २ कुत्ता । ३ बाघ । चीता। के पैर के आकार का है। प्राकाश मे यह नक्षत्र कन्या लग्न के ४ एफ वृक्ष । लाल महिजन । ५. सिंह राशि (को०] । वाईस पल बीतने पर उदित होता है। मृगशिरा नक्षत्र के मृगाविध-सञ्ज्ञा पुं० [ स०] व्याध । शिकारी (को०] । पूर्वार्ध मे (अर्थात् ३० दड के बीच ) वृप राशि और अपराध मृगाश-सज्ञा पुं॰ [ स० ] सिंह । उ०—(क) मूपकादि ग्रह मे रह मे मिथुन राशि होती है। इस नक्षत्र में उत्पन्न मनुष्य मृगचक्षु, बहिर मृगाश शकुतु । गो अश्वादिक जीव बहु जीवहिं मब अति बलवान्, सुदर कपोलवाला, कामुक, साहसी, स्थिरप्रकृति, लघु जतु । -शकर दि० वि० (शब्द॰) । मित्र पुत्र से युक्त और थोडा धनवान होता है । मृगाशन-सज्ञा पुं॰ [ स०] सिंह । मृगाधिप। उ०—दवति द्रौपदी मृगशीर्ष-सज्ञा पुं० [सं० ] मृगशिरा नक्षत्र । २ अगहन का महीना। देखि दुशासन । जिमि वन मे लखि मृगी मृगाशन । -रघुराज मार्गशीर्प (को०)। (शब्द०)। मृगश्रष्ठ-सज्ञा पु० [ ] वाघ [को०] । मृगिंद्र-सशा पु० [ सं० मृगेन्द्र] १ दे० 'मृगेंद्र' । २ सिंह के मृगसत्र-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] उन्नीस दिन का एक सत्र । समान शूर वोर । २०-ज्ज न लज कोपं मृगिंद्र। उतकिष्ट मृगहा-सचा पुं० [ मृगहन् ] शिकारी (को०] । सूर सिर सहिन निंद्र।-पृ० रा०, ६।४६ । स० ao