पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२७७

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भोरदार ४०३६ मोराना थे। श्रीकृष्ण की बात मानकर यह राजा अपना जीवित मे खोसा करते थे। उ०—(क) बांसुरि कुडल मोरपखा मधुरी शरीर पारे से चिरवाने के लिये तैयार हुआ था। मुसकानि भरी मुख है ये |-वेनी (शब्द॰) । (ख) पीत पटी मोरदार-वि० [हिं० मोड + दार (प्रत्य॰)] १ भोथरा । २ घुमाव- लकुटी पदमाकर मोर पखा ले कहूं गति नाखा । पद्माकर दार । उ०-उरज वुरज दै मवासी छन रासी मनो, पीय मन (शब्द०)। (ग) क्यो करि धी मुरली मनि कुढन मोरपखा चचल बनी के नीके मोरदार ।-पोद्दार अभि० प्र०, बनमाल विसार । ते पनि जे व्रजराज लखे गृहकाज कर भरु पृ० ५७३ । लाज संभार । मतिराम (शब्द०)। मोरन'-तज्ञा सी० [हिं० मोडना ] मोडने को क्रिया या भाव । मोरपच्छ-सा पुं० [सं० मयूरपक्ष ] मार का पख । मोढना। यौ०–मोरपच्छधर = मोर का पख धारण करनेवाले, कृष्ण । मोरन'- नज्ञा स्त्री॰ [ स० मोरट ] विलोया हुअा दही जिसमे मिठाई उ०–मोरपच्छधर पच्छ धरि, व्रजनिघि मैं अनुरागि। -बज० और कुछ सुगधित वस्तुएं ( इलायची, लौंग इत्यादि ) डाली ग्र०, पृ० १०। गई हो । शिखरन । उ०—पुनि संधान प्राने बहु साँची। दूध मोरपॉव-सज्ञा पु० [हिं० मोर + पाव] जगी जहाजो के बावर्चीखाने दही को मोरन वाँधी।-जायसी (शब्द॰) । की मेज पर खडा जहा हुअा लोहे का छड जिसमे माम के वडे मोरना'-क्रि० स० [हिं० मोडना ] दे॰ 'मोडना' । उ०—(क) बडे टुकहे लटकाए रहते हैं । (लश०)। फिर फिर सु दर ग्रीवा मोरत । देखत रथ पाछे जो घोरत । मोरमुकुट :-सञ्ज्ञा पु० [हिं० मोर+ मुकुट | मोर के पखो का बना लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। (ख) चारि चारि चित चितवति मुह हुमा मुकुट जो प्राय श्रीकृष्ण जी पहना करते थे। उ०-मोर मोरि मोरि काहे तें हसति हिय हरष बढ़ायो है।-केशव मुकुट की चद्रिकन यो राजत नंदनद । मनु समिसेखर की अकस (शब्द०)। ग) कर पाचर को प्रोट करि जमुहानी मुख किय सेखर सत चंद ।—बिहारी (शब्द॰) । मोरि । -विहारो। (शब्द॰) । (घ) नासा मोरि नचाय दृग फरी कका की सौंहैं । -विहारा (शब्द॰) । मोरवाल -सज्ञा पु० [सं० मयूर, हिं० मोर+वा (प्रत्य॰)] १ दे० 'मोर' । उ०—कूक मोरवान को करेजा टूक टूक करें, मोरना'-क्रि० स० [हिं० मोरन ] दही को मथकर मक्खन निका- लागति है हूक सुनि धुनि धुरवान को ।-~-दोनदयाल (शब्द०)। लना। ( वुदेलखड )। उ०—होठडोर नै मार दिय छिरक २ मुष्क का वृक्ष । मोखा । रूपरस तोय । मथि मा घट प्रीतम लियो मन नवनीत विलोय । -रसनिधि (शब्द०)। मोरवा -सज्ञा पुं॰ [ देश० ] वह रस्मी जो नाव को किलवारी मे बांधी जाती है और जिससे पतवार का काम लेते हैं। मोरनी-सक्षा स्त्री० हिं० मोर का स्त्री० रूप ] १ मोर पक्षी को मादा। उ०—चितं चकोरनी चकोर मोर मोरनी समेत, हस मोरशिखा-सज्ञा स्त्री॰ [सं० मयूर + शखा] एक जडी जिसकी पत्तियां हसिनी समेत सारिका सवै पढें । -केशव (शब्द०)। २ मोर ठोक मोर की कलगी के आकार को होती है । के आकार का अथवा और किसी प्रकार का एक छोटा टिकडा बिशेप-यह जडो बहुधा पुरानी दीवारों पर उगती है । इसकी जानथ मे पिरोया जाता है और प्राय होठो के ऊपर लटकता सुखी पत्तियो पर पानी छिडक देने से वे पत्तियाँ फिर तुरत रहता है। हरी हो जाती हैं। वद्यक मे इसे पित्त, कफ, अतिसार मोर मोरपख -सञ्चा पुं० [हिं० मोर + पख (= पर) ] मोर का पर जो बालग्रह दोषानवारिणो माना गया है। देखने मे बहुत सु दर होता है, और जिसका व्यवहार अनेक मोरा-सा पुं० [ दश० ] अकोक नामक रत्न का एक भेद जो प्राय अवसरो पर प्राय शोभा या शृगार के लिये अथवा कभी कभी दक्षिण भारत मे हाता है और जिसे 'वावांघाडी' भी कहते हैं । भौषध के रूप में हाता है। उ०—मोरपख सिर सोहत नीके । मारा-वि० सं० मम ] [वि॰ स्त्री० मोरी] दे० 'मेरा'। गुच्छा बीच विच कुसुम कली के । -मानस, ११२३३ । उ०—हमे हास हेरला थोरा रे । सफल भेल सखि कौतुक मोरा मारपखी-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० मोरपख + ई (प्रत्य॰)] १ वह नाव रे।-विद्यापति, पृ० १८२ । जिसका एक सिरा मोर के पर की तरह वना और रंगा हुआ यौ०-मोरे लेखे = मेरे हिसाव से । मेरे विचार से। मेरे अनुमान हो। २ मलखम की एक कसरत जो बहुत फुरती से की जाती से । उ०—एकहि मंदिर बसि पिया न पुछर हसि, मारे लेखे हे और जिसमे पैरा को पीछे की ओर से ऊपर उठाकर मोर समुदक पार ।-विद्यापति, पृ. ११८ । के पख की मी प्राकृति बनाई जाती है। मोरादा-सज्ञा स्त्री० [अ० मुराद ] दे० 'मुराद' । उ०-वह नूर नवी मोरपखी-सञ्ज्ञा पुं० एक प्रकार का बहुत सुदर, गहरा और चमकीला तहकीक कर, तव प्रादि मोराद का पाइए जो। कबीर० रे०, नीला रग जो मोर के पर से मिलता जुलता होता है। पृ०४०। मोरपंखी'-वि० मोर के पख के रग का । गहरा चमकीला नीला । मोराना-क्रि० स० [हिं० मोडना का प्रे०रूप] १ चारो ओर मोरपखा-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० मोरपत्र] १ मोर का पर । मोरपख । घुमाना । फिराना। उ०-प्रारति करि पुनि नरियल तवहीं २. मारपस की कलगी जो प्रायः श्रीकृष्ण जी मुकुट या चीर मोराइए। पुरुष को भोग लगाइ सखा मिलि खाइए। कबीर