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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२८५

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स० बोलना। मौन ४०४४ मौरूसी मौन -सञ्ज्ञा पुं० [सं० मौण ] १. वरतन । पात्र । उ० सब चोरन के मौर। —सूर (शब्द॰) । (ख) साधू मेरे सब काढो कोरे कोपर हो अरु काढो घी को मौन । जाति पांति बडे अपनी अपनी ठौर। शब्द विवेकी पारखी वह माथे का पहिराय के सब समदि छत्तीसो पौन ।—सूर (शब्द॰) । २ मौर ।-कबीर (शब्द०)। डव्वा । उ०—मानहुँ रतन मौन दुइ मूदे । - जायसी (शब्द०)। मौर '-सज्ञा पुं० [सं० मुकुल, प्रा० मठल ] छोटे छोटे फूलो या ३ मूज आदि का बना टोकरा या पिटारा । कलियो से गुथी हुई लबी लवी लटोवाला घौद । मंजरी। मौनता-सञ्ज्ञा स्त्री० [ ] मौन होने या रहने का भाव । चुप दौर । जैसे,—आम का मौर । पयार का मौर। अशोक का होना । चुप्पी। मौर । उ०—(क) नद महर घर के पिछवाडे राधा माह मौनभग-सञ्ज्ञा पुं० [ स० मौनमड ग ] मौन तोडना । चुप्पी त्याग कर बतानी हो । मनों अब दल मौर देखि के कुहकि कोकिला वानी हो ।—सूर (शब्द०)। (ख) चलत सुन्यो परदेश को हियरो मौनमुद्रा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० ] चुप्पी । मौन भाव (को॰] । रयो न ठौर | ले मालिन मीतहिं दियो नव रसाल को मौर । मौनव्रत-सज्ञा पुं० [सं० ] मौन धारण करने का व्रत । चुप रहने –मतिराम (शब्द०)। का व्रत। मुहा०—मौर बंधना=मौर निकलना । मजरी लगना । मौना-सचा पुं० [ स० मौण ] [ सी० अल्पा० मौनी ] १. घी' या मौर--सझा पु० [ स० मौलि (= सिर) ] गरदन का पिछला भाग तेल आदि रखने का एक विशेष प्रकार का वरतन । २. कांस षो सिर के नीचे पडता है। गरदन । उ०--(क) भौंह उंचे और मूजे से बुनकर बनाया हुया टोकरा जिसमें अन्न मावि मांचरु उलटि मौर मोरि मुह मोरि ।-विहारी (शब्द॰) । रखा जाता है। ३ सीक या कांस और मूज का तग मुंह का (ख) मोर उंचे घुटन नै नारि सरोवर न्हाइ ।-विहारी ढकनदार टोकरा । पिटारी। ४. मधुमक्खी। उ०—बाड़े से (शब्द०)। हड्डी वजती, सरकार हुआ बूढा तन । मौना के छत्ते करते मौरजिक-सज्ञा पुं॰ [ स० ] मुरज निर्माण करनेवाला शिल्पी। मुरण फूटे कानो में भन भन |-अतिमा, पृ० १६ । वाच बनानेवाला । मौनी'-वि० [ स० मौनिन् ] चुप रहनेवाला। न बोलनेवाला । मौन मौरना-नि. स० [हिं० मौर+ना ( प्रत्य० ) ] वृक्षो पर मनरी धारण करनेवाला। लगना । माम आदि के पेड़ो पर बौर लगना । उ०—(क) काटे मौनी-सज्ञा पुं० मुनि । वनवासी । तपस्वी । पांव न मौरिया फाटे बुरे न कान । गोरख पद परसे बिना कहो मौनो-सञ्ज्ञा स्री० [हिं० मौना ] कटोरे के भाकार की टोकरी को कौन की सान।—कबीर (शब्द॰) । (ख) शिशिर होत पतझार, प्राय कांस और मूज से बुनकर बनाई जाती है । मांव फटाहर एक से। राह बसत निहार, जग जाने मौरत मौनी अमावस्या-मञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] माघ की अमावस्या । प्रगट । हनुमन्नाटक (शब्द०)। (ग) विलोके तहाँ भांब के मौनेय-सज्ञा पुं॰ [स०] गधर्वो और अप्सरानो प्रादि का एक मातृक साखि मौरे । चहूंघा भ्र. हुकर भीर बौरे । लगे पौन के झोक गोत्र । डार मुकावें । विचारे वियोगीन को ज्यो डरावें ।-गुमान विशेप-इन जातियो मे माता का गोत्र प्रधान होता है, क्योंकि (शब्द०)। इनके पिता अनिश्चित होते है । मौरसिरी-सज्ञा स्त्री० [सं० मौलि+श्री] दे० 'मौलसिरी' । उ०- मौर-सज्ञा पुं० [सं० मुकुट, पा० मउड ] [स्त्री० भल्पा० मौरी] १. (क) जुही नसत तासो फहूं प्रीति निबारी जाय । मौरसिरी दिन एक प्रकार का शिरोभूषण जो ताडपत्र या खडी आदि का दिन चढ़े सदा सुहागि लताहि ।-रसनिधि (शब्द॰) । (ख) बनाया जाता है। विवाह में वर इसे अपने सिर पर पहनता मौरसिरी ही को पैन्हि के हार भई सब के सिर मौर सिरी है। उ०--(क) अवधू वोत तुरावल राता। नाचे बाजन तू ।--देव (शब्द०)। बाज वराता । मौर के माये दूलह दीन्हो, अकथा जोरि कहाता। मौरी-सम्बा स्त्री० [हिं० मौर+ई (प्रत्य॰)] १ छोटा मौर जो महये के चारन समचो दीन्हो पुत्र विभाहल माता ।-कबीर विवाह में वधू के सिर वांधा जाता है। उ०-मौर लस उत (शब्द॰) । (ख) सोहत मौर मनोहर माथे। मगलमय मुकुता मौरी इतै उपमा इकहू नहिं जातु लही है। केसरी बागो बनो मनि गाथे ।-तुलसी (शब्द०)। (ग) रामचद्र सीता सहित दोउ के इत चद्रिका चार उतै कुलही है ।--भारतेंदु ग्र०, भा०१, शोभत हैं तेहि ठौर । सुवरणमय मणिमय खचित शुभ सुदर पृ०७७७॥ सिर मौर ।-केशव (शब्द॰) । मौरूसी-वि० [अ० ] बाप दादा के समय से चला पाया हुमा । मुहा०-मौर बांधना = विवाह के समय सिर पर मौर पहनना । पैतृक । जैसे,—यह बीमारी तो उनके खानदान मे मौरूसी है । उ०-पांवरि तजहु देहु पग, परन बांक तुखार । नांध मौर यो-मौरूसी काश्तकार = वह काश्तकार जिसकी काश्त पर भौ छत्र सिर वेगि होहु असवार । —जायसी (शब्द॰) । उसके उत्तराधिकारी को भी वही हक प्राप्त हो । मौरूसी २. शिरोमणि । प्रधान । सरदार । उ०—(क) जो तुम राजा जायदाद = पैतृक परंपरा से प्राप्त जमीन । जैसे,—यह मौरूसी माप कहावत वृदावन की ठोर । लूट लूट दघि सात सबन को जायदाद है, इसमें सब का हक है। 1