पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३१८

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1 योगकक्षा ४०७७ योगधर्मी प्रत्यक्ष रहता हो, उसे संप्रज्ञात कहते हैं। यह योग पांच योगक्षेम-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ जो वस्तु अपने पास न हो, उसे प्राप्त प्रकार के क्लेशो का नाश करनेवाला है। असप्रज्ञात उस करना, और जो मिल चुकी हो, उसकी रक्षा करना। नया अवस्था को कहते हैं, जिममे किसी प्रकार की वृत्ति का उदय पदार्थ प्राप्त करना और मिले हुए पदार्थ की रक्षा करना । नही होता, अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रह जाता, विशेष-भिन्न भिन्न प्राचार्यों ने इस शब्द से भिन्न भिन्न अभि- सस्कारमात्र बच रहता है। यही योग की चरम भूमि प्राय लिए हैं। किसी के मत से योग से अभिप्राय शरीर का मानी जाती है और इसकी सिद्धि हो जाने पर मोक्ष प्राप्त है और क्षेम से उमकी रक्षा का, और किसी के मत से याग होता है। योगसाधन का उपाय यह वतलाया गया है कि का अर्थ है वन प्रादि प्राप्त करना और क्षेम से उसकी रक्षा पहले किसी स्थूल विषय का श्राधार लेकर, उसके उपरात किसी करना। सूक्ष्म वस्तु को लेकर और अत मे सब विषयों का परित्याग २ जीवननिर्वाह । गुजारा। ३ कुशल मगल। खैरियत । उ०- करके चलना चाहिए और अपना चित्त स्थिर करना चाहिए । जब तक कोई अपनी पृथक् सत्ता की भावना को ऊपर किए इस चित्त की वृत्तियो को रोकने के जो उपाय बतलाए गए क्षेत्र के नाना रूपो और व्यापारो को अपने योगक्षेम, हानि- हैं, वे इस प्रकार हैं-अभ्यास और वैराग्य, ईश्वर का लाभ, मुखदु ख प्रादि को सबद्ध करके देखता रहता है तब तक प्रणिधान, प्राणायाम और समाधि, विपयो से विरक्ति श्रादि । उसका हृदय एक प्रकार से बद्ध रहता है ।-रस०, पृ० ५। यह भी कहा गया है कि जो लोग योग का अभ्यास ४ दूसरे के धन या जायदाद की रक्षा । ५ लाभ । मुनाफा । करते हैं, उनमे अनेक प्रकार की विलक्षण शक्तियां या जाती ६ ऐसी वस्तु जिसका उत्तराधिकारियो मे विभाग न हो। ७. हैं जिन्हे विभूति या सिद्धि कहते हैं। विशेष दे० 'सिद्धि'। यम, राष्ट्र की सुव्यवस्था । मुल्क का अच्छा इतजाम । नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और योगगति-सज्ञा स्त्री० [सं०] १ मूल दशा । भारभिक स्थिति । समाधि ये पाठो योग के अग कहे गए हैं, और योगसिद्धि के २. सयोग की अवस्था। पारस्परिक सयोग को०] । लिये इन आठो प्रगो का साधन पावश्यक और अनिवार्य कहा योगगामी-वि० [ स० योगगामिन् ] योगवल से ( वायु या प्राकाश गया है। इनमें से प्रत्येक के अतर्गत कई पाते हैं। कहा गया मे ) गमन करनेवाला [को०] । है जो व्यक्ति योग के ये पाठो अग सिद्ध कर लेता है, वह सब योगचक्षु-सधा पुं० [सं० योगचछ स् ] ग्राह्मण । प्रकार के क्लेशो से छूट जाता है, अनेक प्रकार की पाक्तियां योगचर-सचा पुं० [ प्राप्त कर लेता है और प्रत में कैवल्य ( मुक्ति ) का भागी ] हनुमान् । होता है। योगचूर्ण - सज्ञा पुं० [सं० ] जादू की बुकनी। वह बुकनी जिसमे जादू का प्रभाव हो [को०] । कपर कहा जा चुका है कि सष्टितत्व प्रादि के संबंध में योग का भी प्राय, वही मत है जो सांख्य का है, इससे सांख्य को ज्ञान- योगज-सज्ञा पुं० [स०] १ योगसाधन को वह अवस्था जिसमें योगी मे भलौकिक वस्तुमो को प्रत्यक्ष कर दिखलाने की शक्ति योग और योग को कर्मयोग भी कहते हैं। पतजलि के सूत्रों पर सबसे प्राचीन भाष्य येदव्यास जी का है । उसपर वाचस्पति मा जाती है। का वार्तिक है। विज्ञानभिक्षु का 'योगसारसग्रह' भी योग विशेष-युक्त और युजान दोनो इसी के भेद हैं। यह नयायिको के अलौकिक सनिकर्ष के तीन विभागो में से एक है। शेष दो फा एक प्रामाणिक प्रथ माना जाता है। सूत्रो पर भोजराज विभाग सामान्य लक्षण और ज्ञान लक्षण हैं। की भी एक वृत्ति है । पीछे से योगशास्त्र मे तत्र का बहुत सा २ अगर लकडी| अगरु । मेल मिला और 'कायव्यूह' का बहुत विस्तार किया गया, जिसके अनुसार शरीर के प्रदर अनेक प्रकार के चक्र प्रादि योगजफल-सज्ञा पुं० [सं० ] वह अक या फल जो दो प्रको को कल्पित किए गए। क्रियामो का भी अधिक विस्तार हुप्रा और जोडने से प्राप्त हो । जोड । योग । ( गणित ) । हठयोग की एक अलग शाखा निकली, जिसमे नेती, घोती, योगतत्व-सञ्ज्ञा पुं० [स० ] एक उपनिपद का नाम, जो प्राचीन वस्ती आदि पट्कर्म तथा नाडीशोधन आदि का वर्णन किया यस उपनिषदो मे नहीं है। गया। शिवसहिता, हठयोगप्रदीपिका, घेर डसहिता आदि योगतल्प-सज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'योगनिद्रा'। हठयोग के प्रथ हैं । हठयोग के बड़े भारी प्राचार्य मत्स्येंद्रनाथ योगतारा-सा पुं० [सं०] १ किसी नक्षत्र मे का प्रधान तारा । ( मछदरनाथ ) और उनके शिष्य गोरखनाथ हुए हैं २ एक दूसरे से मिले हुए तारे । योगकक्षा- सशा स्त्री० [सं० ] दे० 'योगपट्ट' (को०] । योगत्व-सशा पुं० [सं० ] योग का भाव । योगकन्या-सञ्चा सौ० [सं०] यशोदा के गर्भ से उत्पन्न कन्या, योगदर्शन-सशा पुं० [सं० ] महर्षि पतजलि कृत योगसूत्र । विशेप वसुदेव जिसे ले जाकर देवकी के पास रख पाए थे और जिसे दे० 'योग'। कस ने मार डाला था। योगमाया। योगदान-Hश पुं० [सं०] १ किसी काम में साथ देना। हाथ योगकुडलिनी 1-सज्ञा स्त्री॰ [ सं० योगकुण्डलिनी ] एक उपनिषद् का बंटाना । २ कपट मे किया हुआ दान । ३. योग की दीक्षा । नाम । (यह प्राचीन उपनिपदो में नहीं है । ) योगधर्मी-सझा पुं० [सं० योगमिन् ] योगी। HO 1