पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३३८

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60 0 स० फस्द। रक्तपूर्तिका ४०६७ रक्तवर्ण रक्तपूतिका-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० ] लाल रंग की पूतिका । लाल पोई । शीतल, रुचिकारक, पुप्टिकारक, अग्निदीपक और त्रिदोष का विशप-वैद्यक मे यह स्निग्ध और मूत्रवर्धक मानी गई है । बच्चो नाशक माना गया है। के कई रोगो मे और सूजाक मे इसका साग गुणकारी माना रक्तमस्तक-सञ्ज्ञा पुं० [स०] लाल रग के सिरवाला सारस पक्षी । गया है । शास्त्र में इसका साग खाने का निपेव है। रक्तमातृका-सचा सी० [सं०] १ वैद्यक के अनुसार वह रस रक्तपूय-मज्ञा पुं॰ [ स० ] पुराणानुसार एक नरक का नाम । नामक धातु जिसकी उत्पत्ति पेट मे पचे हुए भोजन से होती है और जिससे रक्त बनता है। २ तत्र के अनुसार एक प्रकार रक्तपूरक-सज्ञा पु० [ स० ] इमली। का रोग। रक्तपूर्ण-वि० [ सं० रक्त + पूर्ण ] रक्त से भरा हुआ । रक्ताक्त । रक्तप्रतिस्याय -सज्ञा पुं० [ स० रक्तप्रतिश्याय ] प्रतिश्याय या जुकाम रक्तमुख-सशा पु० [सं० १ रोहू । मछली । २ यष्टिक धान्य । का एक भेद । बिगड़ा हुग्रा जुकाम । रक्तमूर्द्धा -सज्ञा पुं॰ [ म० रक्तमूर्द्धन ] सारस । विशेष-इसमे नाक से खून जाता है, आंखें लाल हो जाती हैं, रक्तमूलक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] देवमर्पप नाम को सरसो का पेड । छाती मे पीडा होती है और मुह तथा सांम से बहुत दुर्गध रक्तमूला-सञ्ज्ञा स्त्री० [ ] लजालू । पाती है। रक्तमेह-सञ्ज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'रक्तप्रमेह' । रक्तप्रदर-सञ्ज्ञा पुं० [ सं० ] प्रदर रोग का वह भेद जिसमे स्त्रियो की रक्तमोक्ष, रक्तमोक्षण-सञ्ज्ञा पुं० [ स० ] वैद्यक के अनुसार, शरीर योनि से रक्त बहता है। विशेष दे० 'प्रदर' । का खून खराब हो जाने पर उसे बाहर निकालने की क्रिया । फस्द। रक्तप्रमेह-सज्ञा पु० [ ] पुरुषो का एक रोग जिसमे दुर्गघियुक्त गरम, खारा और खून के रग का पेशाब होता है । रक्तमोचन-सज्ञा पुं० [सं० शरीर का खून निकलना। शीर । रक्तप्रवृत्ति-मशा पुं० ] वह रोग जो पित्त के प्रकोप से उत्पन्न हो। रक्तयष्टि-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० ] मजीठ । रक्तप्रसव-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स०] १ लाल कनेर । २ मुचकुद वृक्ष । रक्तर गा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० रक्तरड गा ] मेहंदी । रक्तफल-सज्ञा पु० [ ] १ शाल्मलि । मेमल। २. वट का वृक्ष । रक्तरज-सञ्ज्ञा पुं० [सं० रक्तरजस् ] सिंदूर । वड का पेड । रक्तरस- सज्ञा पुं० [स० ] विजंसार । रक्तासन । रक्तफला-सञ्चा स्त्री॰ [ स० ] १ कुदरू । तुष्टी। विवी। २. रक्तरसा-सज्ञा स्त्री॰ [ स० ] रास्ना । स्वर्णवल्ली। रक्तराजि-सज्ञा स्त्री॰ [ स०] १ सुश्रु त के अनुसार एक प्रकार का कीडा जिसे सर्पपिका भी कहते हैं। २. प्रांख का एक रक्तफूल-सञ्ज्ञा पुं॰ [ हिं० रक्त+ हिं० फूल ] १. जवा पुष्प । रोग (को०)। अडहुल का फूल । २ पलास का वृक्ष । रक्तफेनज-सशा पु० [ स०] फुफ्फुस । फेफडा। रक्तरेणु--स --सञ्चा पुं० [सं०] सिंदूर । २ पुन्नाग। ३ क्रुद्ध व्यक्ति । (को०) । ४ पलाश को कली (को०) । रक्तभव-सचा पु० [सं० ] मास । गोश्त । रक्तरैवतक-मज्ञा पु० [ स० ] एक प्रकार का खजूर का पेड । रक्तभाव-वि० [सं०] १ लाल रग का । २ अनुरक्त भाववाला। रक्तरोग-सज्ञा पुं० [स०] वह रोग जो रक्त के दूपित होने से प्रणयी। प्रम करनेवाला (को०] । होता है । जैसे, कुष्ठ आदि। रक्कम जर-स. पुं० [सं० रक्तमञ्जर ] १ बेंत की लता। २ नीम रक्तला-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स० १ काकतुडी। कौवाठोंठो। २ गुजा का पेड। करजनी । घुघची। रत्ती। रक्तमजरी-सञ्चा खी० [सं० रक्तमञ्जरी ] लाल कनेर । रक्तलोचन-तज्ञा पु० [सं० ] कबूतर । रक्तमडल-सञ्चा पुं० [ स० रक्तमण्डल ] १ सुश्रु त के अनुसार एक रक्तवटी-सञ्चा सी० [स०] मसूरिका या चेचक का रोग । शीतला। प्रकार का साप । २ लाल कमल। ३ एक प्रकार का रक्तवरटी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स०] शीतला रोग । चेचक । जहरीला पशु । रक्तवर्ग-सञ्ज्ञा पुं० [स०] १ अनार, ढाक, लाख, हलदी, दारु- रक्तमडलिका-संशा स्त्री॰ [सं० रक्तमण्डलिका ] लाल लज्जावती हलदी, कुसुम के फूल, मजीठ और दुपहरिया के फूल, इन या लजालू सबका समूह ( ये सव रंगने के काम मे पाते हैं )। रक्तमत्त-सशा पु० [स० ] १ वह जो रक्त पोकर तृप्त हो। जैसे, रक्तवर्ण'- '-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ वीरवहूटी नामक कीडा। २ लह- खटमल, जोक आदि । २ राक्षस । रक्तस (को०)। सुनिया नग । गोमेद । ३ मूगा । ४. कपिल्लक । कमोला। रक्तमत्स्य-सज्ञा पुं० [स० ] एक प्रकार की लाल रग की मछली । ५. लाल रंग (को०) । ६ सोना । स्वर्ण (को०) । विशेष- यह बहुत वडी नही होती। वैद्यक मे इसका मांस रक्तवर्ण-वि० लाल रगवाला [को०। HO