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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३३९

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रक्तवर्तक ४०६८ जाती है। रक्तवर्तक-सञ्ज्ञा पु० [सं०] लाल बटेर । रक्तवण-रू पुं० [सं०] वह फोडा जिममे ने मवाद न निकलकर रक्तवर्मा-सज्ञा पुं० सं० रक्तवर्मन् | मुरगा। केवल रक्त ही बहता हो। रक्तवर्द्धन'—वि० [स०] रक्त वढानेवाला । रक्तवर्धक । रक्तशमन-सचा पु० [सं०] फमीना । रक्तवर्द्धन'- सज्ञा पु० [सं०] बैगन । रक्तशालि-मज्ञा पुं० [मं०] एक प्रकार का लाल रग ना चापल या शाति जिसे दाऊदवानी कहते है। रक्तवर्याभू मचा रसी० [स०] लाल पुनर्नवा । रक्तशालुक-सज्ञा पुं० [सं०] लाल कमल की जड । ममीः। रक्तवल्ली-तशा स्त्री० [सं०] १ मजीठ। २ दडोत्पल नाम का पौधा । ३ नलिका । पगारी। ४ एक प्रकार की लता जिसे रक्तशाल्मलि-राशा पुं० [स०] लाल फूलवाला समल । पित्ती कहते हैं। रक्तशासन-सज्ञा पुं० [म०] सिंदूर। रक्तवसन-सज्ञा पुं० [सं०] १ सन्यासी । २. वह ब्राह्मण जो सन्यास- रक्तशिन-मा पु० [स०] जान सहिजन । आश्रमी हो गया हो (को०)। रक्तशीर्पक-सञ्चा पुं० [स०] १ गवा बिरोजा । २ सारम । रक्तवात-सज्ञा पुं॰ [सं०] एक प्रकार का वात रोग जिसे पातरक्त भी रक्तय ग--राज्ञा पुं० [सं० रक्तशृङ्ग] हिमालय की एक चाटो मा नाम । कहते हैं । विशेष दे० 'वातरक्त' । रक्त गिक-सा पु० [स० रस्तशृङ्गक] विप । जहर । रक्तवालुक-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] [सज्ञा स्त्री॰ रक्तवालुका] सिंदूर । रक्तशेखर-सज्ञा पुं० [स०] पुन्नाग । रक्तवासा-सञ्ज्ञा पुं० [स० रक्तव सस्] दे० 'रक्तवसन' [को०) । रक्तश्वेत 1-सरा पु० [म०] मुथु त के अनुगार एक प्रकार का वहन रक्तविंदु-मज्ञा पुं० [सं० रक्तविन्दु] १ रुधिर की बूद। २ रक्त जहरीला विच्छू। अपामार्ग । लाल चिचडा । ३ रलो मे दिखाई पडनेवाला लाल रक्तष्ठीवि, रक्तष्ठीवी-मग पुं० [स०] एक प्रकार का बहुत ही दाग या धन्वा जो एक दोप माना जाता है। जैने, यदि होरे घातक सन्निपात। मे यह दोष हो, तो कहते हैं कि उसे पहननेवाले की स्त्री मर विशेप-यह रोग अमाध्य माना जाता है। इस सन्निपात में रोगो के मुंह से लहू जाता है, मांस और पेट फूलता है, जीभ रक्तविकार-सञ्ज्ञा पुं० [स०] खून की खराबी । रक्तदोप। मे चकते पड जाते हैं मोर उनमे से लहू निकलता है । रक्तसकोच-समा पुं० [म० रक्तसङ्काच] युमुम का फूल । रक्तविद्रधि-सज्ञा पु० [सं०] रक्त के प्रकोप से होनेवाली एक प्रकार की विद्रधि या फोडा जिसमे किसी अग मे सूजन होती है, और रक्तसज्ञक-संज्ञा पुं॰ [स०] कु कुम । केनर । काले रग की फु सियां हो जाती हैं। रक्तसदशिका-संज्ञा स्त्री० [स० रक्तसन्दशिका] जलोका । जोक रक्तविस्फोटक-सज्ञा पुं॰ [स०] एक प्रकार का राग जिसमे शरीर मे [को०] । गुजा के समान लाल लाल फफोले पड जाते हैं। रक्तसदशिका--सशा स्त्री० [स० रक्तसन्दशिका) जोक | रक्तवीज-सज्ञा पुं॰ [स०] १ लाल बीजोवाला दाडिम । अनार । रक्तसध्यक-सञ्ज्ञा पु० [स० रक्तसन्ध्यक] लाल कमल को०] । बीदाना । २ रीठा । ३ एक राक्षस का नाम जो शुभ और रक्तसबध-सज्ञा पु० [सं० रक्त सम्बन्ध] कुल का सवव । रक्तजनित ऐक्य सबंध। निशु भ का सेनापति था। रक्तसवरण-संज्ञा पुं० [सं०] नुरमा । विशेष-देवी भागवत मे लिखा है कि युद्ध के समय इसके शरीर रक्तसर्पप-सशा पुं० [ से रक्त की जितनी वूदें गिरती थी, उतने ही नए राक्षस ] लाल सरसो। उत्पन्न हो जाते थे। इसलिये चडिका ने इसका रक्त पोकर रक्तसार-सज्ञा पुं० [ ] १ लाल चदन । २ पतग। ३ अमल- इसे मार हाता था। यह भी कहा गया है कि महिषासुर का वेत । ४ सैर । ५ वाराही कद । ६ रक्तबीजासन । पिता रंग दानव ही मरकर फिर रक्तवीज के रूप मे उत्पन्न रक्तस्तभन-सञ्ज्ञा पु० [ स० रक्तस्तम्भन ] वहते हुए रक्त को रोकने की क्रिया। हुमा था। रक्तवीजका-सञ्ज्ञा सी० [सं०] तरदी नाम का एक कंटीला पेड। रक्तस्राव-सज्ञा पु० [सं०] १ शरीर के किसी अग से रक्त का वहना या निकलना । खून जाना या गिना। २ घोडो का रक्तवीजा-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] सिंदूरपुष्पी । सिंदूरिया । एक रोग जिसमे उनकी प्रांखो मे से रक्त या लाल रंग का रक्तवृ तक-सज्ञा पु० [ रक्तवृन्तक ] पुनर्नवा। गदहपूरना । पानी वहता है। रक्तवृता-सज्ञा स्त्री॰ [सं० रक्तवृन्ता] शेफालिका । निर्गुडो । रक्तहसा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं० ] एक प्रकार को रागिनी ( सगोत)। रक्तवृष्टि-सज्ञा स्त्री॰ [स०] आकाश से रक्त या लाल रंग के पानी की रक्तहर-सज्ञा पुं० [सं० ] भिलावा । वृष्टि होना। रक्ताक-सशा पुं॰ [सं० रक्ताङ्क ] मूगा। विशेष—यह अशुभसूचक है। कहते हैं, ऐसी वृष्टि होने से देश रक्तांग-वि० [सं० रक्ताङ्ग ] लाल अगावाला। जिसके शरीर का मे युद्ध, महामारी आदि अनेक अनिष्ट होते है। वर्ण लाल हो । लाल रंग का । HO do