पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३६६

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रम्माल ४१२५ ररना । उ०-वहां सब सकट दुर्घट सोच तहाँ मेरो साहेव राखे रय-सज्ञा पुं० [सं०] १. वेग । तेजी। उ०—यह जानत है के मब रमैया ।—तुलसी (शब्द०)। २ ईश्वर । उ०-रमैया की गुण रथ के यासो रहत चुपाइ । --गुमान (शब्द०)। २. दुलहिन लूटी बजार। प्रवाह । नदी की धारा । ३ ऐल के छह पुत्रो मे से चौये पुत्र रम्माल-सज्ञा पुं० [अ० ] रमल फेंकनेवाला । पासा फेंककर फलित का नाम । ४ उत्साह (को०)। कहनेवाला। रयणपत--सञ्ज्ञा पुं० [स० रजनीपति] चद्रमा । (डिं०) । रम्य-वि० [ स०] [ स्त्री० रम्या ] १ मनोहर । सु दर । २. रयनgf-सज्ञा स्त्री० [सं० रजनी] दे० 'रयनि' । मनोरम । रमणीय । उ०-परम रम्य उत्तम यह घरनी। रयना'-क्रि० अ० [स० रञ्जन] १. रग से भिगोना । तरावोर -मानस, ६२ । करना । उ०-भरहिं वीर अरगजा छिरकहि सकल लोक एक रम्य-सझा पुं० १ चपा का पेड । २ बक का पेड। अगस्त । ३ रग रये । —तुलसी (शब्द॰) । २ किसी के प्रेम मे मग्न होना। परवल की जह।। वीर्य । ५ अग्निध्र के एक पुत्र का अनुरक्त होना । ३. सयुक्त होना । मिलना । उ०—(क) करिए नाम । ६ वायु के सात भेदो मे एक जो घटे मे चार से सात युत भूषण रूप रयी । मिथिलेश मुता इक स्वर्णमयी।-केशव कोस तक चलती है। (शब्द॰) । (ख) अोठ रचि रेख सतिशेप शुभ श्री रये ।—केशव रम्यक-सञ्ा पुं० [सं०] १ जवू द्वीप के नौ खडो या वर्षों में से (शब्द०)। एक। यह मेरु के दक्षिण श्वेत पर्वत के उत्तर वायव्य रयनारे-क्रि० प्र० [सं० रव] उच्चारित करना । रव करना कोण मे माना गया है। बोलना । उ०-आकाश विमान अमान छये । हा हा सब ही विशेप-कहते हैं, यहां वट की जाति का एक वृक्ष होता है, यह शब्द रये ।-केशव (शब्द॰) । जिसे खाकर यहां के लोग कई दिन तक रह सकते हैं। इसे रयनि-सज्ञा स्त्री॰ [म० रजनी, प्रा. रयणी] रात्रि । निशा । रात । रोहित भी कहते हैं। रयासत-सञ्ज्ञा स्त्री० [अ० रियामत] दे० 'रियामत' । २. महानिब । बकायन । ३. परवल की जड (को॰) । रयि-सज्ञा पुं॰ [सं०] १ जल। पानी। २ वैभव । सपत्ति। ३ रम्यकक्षीर-मक्षा पुं० [सं०] महानिब । बकायन । भोजन । भोजन के पदार्थ [को०] । रम्यग्राम-सबा पुं० [सं० ] महाभारत के अनुसार एक गांव का रयिष्ठ-सचा पुं० [सं०] १ कुवेर का एक नाम । २ अग्नि । ३ एक नाम। प्रकार का साग । ४ ब्राह्मण (को०) । रम्यपुष्प-सा पुं० [स] सेमल का पेड़ । रव्यत, रय्यति-सच्चा सी० [अ० रश्रय्यत] प्रजा। रिाया । रम्यफल-सशा पुं० [सं०] कुचिला। रयत । उ०-सुनि शत्रु मित्र की नृप चरित्र की रय्यति रावत रम्यश्री-सशा पुं० [सं० ] विष्णु । वात। -केशव ( शब्द०)। ररकार-सचा पुं० [सं० रकार] रकार को ध्वनि | उ०-रग रग रम्यसानु-सशा पुं० [सं० ] पहाट के शिखर पर की समतल भूमि । बोले राम जी रोम रोम ररकार । कबीर (शब्द॰) । प्रस्था रम्या-सचा स्त्री० [सं०] १. रात । २ गगा नदी। ३. स्थल रर@f-सशा स्त्री० [हि० ररना] रटना। रट । उ०—(क) धन पधिनी। 9 महेंद्रवारुणी। इद्रायन । ५. लक्षणा कद । ६ सारस होइ रर मुई श्राप सु मेटहिं पख । —जायसी (शब्द॰) । मेरु की कन्या का नाम जो रम्य से ध्याही थी। ७ घेवत स्वर (ख) झरिया सार तिहिं पर अपार मुख मारु मारु रर ।-नूदन की तीन श्रुतियो मे से मतिम श्रुति का नाम । ८ एक रागिनी (शब्द०)। का नाम । २-सञ्ज्ञा स्त्री० [देश॰] वह दीवार जो एक पर एक यो ही बडे बडे रम्याक्षि-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम । पत्थर रखकर उठाई गई हो और जिसके पत्थर चूने, गारे आदि रम्यामली-सहा स्त्री० [स०] सुई प्रांवला । से न जोडे गए हो । (दु देल०)। रम्र मक्षा पुं० [सं०] १ पिशग वर्ण। कपिल वर्ण । २ सौंदर्य । ररका-सञ्चा स्त्री० [अनु॰] रकने का भाव । कमक । साल । टीस । ररकना-क्रि० अ० [ अनु० कमकना किरकिराना। सालना। रम्हाना-क्रि० स० [सं० रम्भण] गाय का बोलना । रंभाना । उ०- पीडा देना । टीसना । उ०-सपने कि सौति करची सोवत कि (क) तौ लगि गाय रम्हाय उठी कवि देव बघूनि मथ्यो दघि जागत ही जानी न परति रोम रोम ररकन है। -देव (शब्द०)। को घट । -देव (शब्द०) (ख) धौरिई कोरिये प्राइ गई सू ररनाल - क्रि० अ० [हिं० रल्ना वा स० ललन] दे० 'रलना' । रम्हाइ के धाइ के लागी चुखावन । -देव (शब्द॰) । उ.-जीवन अधार प्यारे प्रांखिन मे प्राय छाय हाय हाय घग रयो'-सहा पुं० [सं० रज] रज । धूल । गर्द । उ०-ठाकुर विराज अग सग रग ररे हौ।-धनानद, पृ० १३७ । जहां खेलै सुत औरन के हार ईंट खोवा रयो प्रभु पर ररना-क्रि० अ० [स० रटन, प्रा० रइन] लगातार एक ही वात खोजियो । प्रियादास (शब्द॰) । कहना । बार वार कहना । रटना। उ०-(क) पिय पिय ररा शोभा [को०] ।