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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३६७

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रराट ४१२६ रखना ३ चचल। चातक जो ररी मर सेवात पियास । जायसी (शब्द॰) । (ख) श्रावते जनक थाम जानहीं रूप देख वरहै रव के ।-हृदयराम हरि हरि हौं हा हा ररी हरे हरे हरि रारि केशव (शब्द०)। (शब्द॰) । (ग) बदन उघारत ही मदन सुयोधन ही द्रौपदी ज्यो रव-सज्ञा पुं० दश० ] जहाज की चाल या गति । रुम । (लश०) । नाउँ मुख तेरोई ररति है। -केशव (शब्द॰) । रवक'-सा पु० [२०] रेंड नामक वृक्ष । रराट-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० रराटी] ललाट (को०] । रवक-सशा पुं० [सं०] १ वे मोती जो एक वरण (परिमाण) में ररिहा-सहा पुं० [हिं० ररना+हा (प्रत्य॰)] १ ररनेवाला । ३० चढते हो । २ तीस मोतियो का लच्छा जो तौल मे बत्तीस २ रटुवा या रुरुप्रा नामक पक्षी जो उल्लू की जाति का है। रत्ती का हो। वार बार गिडगिडाकर मांगनेवाला। मांगने की घुन रखकना-क्रि० अ० [हिं० रमना (= चलना )] १ जल्दी से आगे लगानेवाला । भारी मगन । उ०—द्वारे ही भोर ही को ग्राजु । बढना । दौडना । लपकना । उ०—(क) सेमर खजूर जाय पूर रटत ररिहा पारि और न कौरही तें काजु । - तुलसी (शब्द॰) । रही शूर मग ताही के तुरग तहां देव रवकत ह । हृदयगम र -वि० [हि० रार (= मगडा)] रार करनेवाला । झगडालू । (शब्द॰) । (ख) नैन मीन मरवर प्रानन में बचन करत विहार। रीवि० [हिं० ररना] १ बहुत गिडगिडाकर मांगनेवाला । भारी मानो कर्णफूल चारा को रवकत बार बार ।-सूर (शब्द॰) । मगन । २ अधम । नीच । उ०—काम पडने पर अपने एक (ग) लीने बमन देखि ऊंचे द्रुम रवकि चढनि बलबीर की।- भाई को कह डालें कि तुम नीच हो, जाति मे हेठे हो, रर्रा हो, सूर (शब्द०)। (ध) परम सनेह बढाबत मातनि रवकि रवकि षटकुल मे नहीं हो।-बालकृष्ण भट्ट (शब्द॰) । हरि बैठत गोद ।-नूर (शब्द०)। २ उमगना । उछलना । रलक-सचा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश का नाम । उ०-यह अति प्रबल म्याम अति कोमल रवकि रवकि उर रलना-क्रि० स० [सं० ललन (= लुव्य होना)] एफ मे परते ।—सूर (शब्द०)। मिलना । सम्मलित होना । उ० – (क) माल लस धवली गर रवण'-सा पुं० [सं०] १ कामा नामक घातु । २ रव । शब्द । मैं कर दीन दयाल रली मुरली है।-दीनदयाल (शब्द॰) । ३ कोयल | ४ उँट । ५ विदूपक या भांड। (ख) चली पीठ दे दृष्टि फिरावति अंग प्रानंद रली । —सूर रवण-वि० १. शब्द करता हुआ । २ गरम । तप्त । ३ अस्थिर। (शब्द॰) । (ग) कु ज ते कुज रली रस पुज मैं गुंजति होलति भौरी भई हैं। -सुदर (शब्द॰) । रवण-वि॰ [सहा पुं० (सं० रमण)] दे० 'रमन' । यौ०-रलना मिलना = घुलना मिलना। मिलना जुलना । एक रवणरेती-सा सी० [हिं० रमण + रेती ] गोकुल के ममीप यमुना हो जाना। किनारे की रेतीली भूमि, जहाँ श्रीकृष्ण ग्वाली के साथ वेला रलाना-क्रि० स० [हिं० रलना का सफ० रूप ] एक मे करते थे। मिलाना । समिलित करना । रवताई 2-सज्ञा स्त्री० [ हि रावत + पाई (प्रत्य॰)] १ राजा या रली'- सशा सी० [ मं० जनन (= केलि, क्रीडा )] १ विहार । रावत होने का भाव । २ प्रभुत्व । स्वामित्व । उ०-धन सा क्रीडा। उ०-खरी पातरी कान की कौन वहाऊँ वानि । पाक खेल खेल सह पेमा। रवताई औ फूसल खेमा ।—जायसी कली न रली कर अली अली जिय जानि ।-विहारी (शब्द॰) । (शब्द॰) । २ आनद । प्रसन्नता । उ० -विविधि कियो व्याह विधि वसुदेव रवथ-सज्ञा पुं० [सं० ] कोयल । मन उपजी रली । —सूर (शब्द॰) । रवन'-सा पु० [ स० रमण ] पति । स्वामी । उ०—पिय निठुर यौ०-रगरली । रगरलियाँ । वचन कहे कारन कनन । जानत हो सबके मन को गते मृदु रली-सशा स्त्री॰ [ देश० ] चेना नामक अन्न । चित परम कृपाल रवन । - तुलसी (शब्द॰) । रल्ल-सज्ञा पुं० [हिं० रेला ] रेला। हल्ला । उ०—(क) रवन-वि० रमण करनेवाला । क्रोडा करनेवाला । उ०—(क) दल दक्खिनी करि रल्ल । मिलि गए ले भृज भल्ल । -सूदन राग रवन भाजन भवन शोभन श्रवण पवित्र ।-केशव (शब्द॰) । (ख) धरि घरि प्रायुच हथ्य गथ्य के गथ्थ उछल्लिय । (शब्द०)। (ख) मन मन मनहुँ मिलिंद, रहत पास तव चरन दंदै दिग्ध नमान करत प्रापुस मैं रल्लिय । —सूदन (शब्द॰) । करहु कृपा गोविंद, राधारवन कृपायतन |-गोराल रल्लक-सज्ञा पुं० [ स०] १ एक प्रकार का मृग । २ ऊनी कवल । (शन्द०)। ऊर्णवस्त्र (को०)। ३ बरौनी । पक्ष्म (को०) । रवना-क्रि० अ० [सं० रमण ] क्रीडा करना। रमण करना । रव'-सज्ञा पुं० [सं०] १ गुजार । ध्वनि । नाद । उ०-(क) कूजत उ०-जैसी रवै जयश्री करवालहिं । ज्यो अलिनी जलजात कल रव हस गन गुंजत मजुल भृग । —तुलसी (शब्द॰) । (ख) रसालहिं ।-केशव (शब्द॰) । कलम पिक सुरु सरक रव करि गान नाचहि अपसरा । रखना'—क्रि० प्र० [हिं० रव (= शब्द०) ] शब्द करना । बोलना । तुलसी (शब्द॰) । २ आवाज । शब्द । ३ शोर । गुल । रवना -सञ्ज्ञा पु० [सं० रावण] दे॰ रावण । उ०-बहुतहिं अमगढ रवल-तज्ञा पुं० [सं० रवि ] सूर्य । उ०-पावते मरम तो न कीन्हेस जोन्ना। अंत भई लकापति रवना।—जायसी (शब्द०)। ।