पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/४१६

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। चनी। चलता ] १ रास्ता राहु-सा पु० [ म० राहगीर ४१७५ राहल राहगीर-सञ्ज्ञा पुं० [फा०] मार्ग चलनेवाला । मुसाफिर । पथिक । राहिम्म-वि० [अ० राहिम ] दे० 'राहिम'। उ०--अबदुल्ल राहचबैनी-सक्षा सी० [हिं० राह + चमेनी ] वैशाख मे अक्षय तृतीया रोम राहिम्म मीर ।-पृ० रा०, ६११५४४। के दिन किया जानेवाला दान जिसमे भूजे चने, वेसन के लड्डू राही-मज्ञा पु० [फा०] राहगीर । मुसाफिर । पथिक । यात्री। आदि रहते हैं। पितरो के तृप्त्यर्थ भी इसका विधान है। सरग मुहा०-राधी करना = चलता करना। धता बताना । हटाना । राही होना= चल देना । हट जाना। राहचलता-सबा पु० [फा० राह+ हिं० चलनेवाला। पथिक । राहगीर । बटोही। २ कोई साधारण ] १ पुराणानुमार नौ ग्रहो में से जो विप्रवित्ति के वीर्य मे सिंहिका के गर्भ से उत्पन्न हुमा था। या तीरारा मनुष्य जिसका प्रस्तुत विषय से कोई सवध न हो। उ.-(क) राहु शशि सूर्य के बीच मे वैठि के मौहनी मो प्रगृत अजनबी। गैर । जैसे,—यो राहचलते को कोई ऐसा काम मांगि लीनो ।—सूर (शब्द०) । (ख) उपरहिं प्रत न होह सुपुर्द करता है। निवाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू | - तुलसी (शब्द०) (ग) राहचोरगी।- सञ्चा पुं० [फा० राह + हिं० चौरगी ] चौमुहानी । हरिहर जस राकेस राहु ने । पर अकाज भट महम बाहु से - चौरस्ता । उ०—सो किमि छानी जाय राहचौरगी सोहै । तुलमी (शब्द०)। -युघाफर द्विवेदी (शब्द०)। विशेप-यह बहुत बलवान था। कहते हैं, समुद्रमथन के समय राहजन-ससा पुं० [फा० राहजन ] डाकू । लुटेरा । देवतायो के साथ बैठकर इसने चोरी से अमृत पी लिया था। राहजनी-सञ्ज्ञा स्त्री० [फा० राइज़नी ] डकैती । लूट । सूर्य और चद्र ने इसे यह चोरी करते हुए देख लिया था और राहड़ा-सज्ञा स्त्री० [सं० ] एक प्रकार की सगीतरचना (को॰] । विगु से यह कह दिया था । विष्णु ने सुदर्शन चक्र से इसकी राहडी'- सज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का घटिया कवल । गग्दन काट दी। पर यह अमृत पी चुका था इसमे इसका मस्तक राहत-सच्चा स्त्री० [अ० ] आराम । सख । चैन । अमर हो गया था। उसी मस्तक में यह मूर्य और चद्र को ग्रसने लगा था। और तब से अव तय समय समय पर वरावर क्रि० प्र०-देना।-पाना ।-मिलना। ग्रसता आता है जिससे दोनो का ग्रहण लगता है। यही मस्तक राहदारी--सञ्चा सी० [फा०] १. राह पर चलने का महसूल । राहु और कवध केतु कहलाता है । सडक का कर। यौ०--परवाना राहदारी = वह प्राज्ञापत्र जिसके अनुसार किसी २ ग्रहण (को०) । ३ उपमर्जन । परित्याग (को०) । ४. उपसर्जक | मार्ग से होकर पाने या माल ले जाने का अधिकार प्राप्त हो । ५ दक्षिणपश्चिम कोण का । २ चुगी । महसूल । राहु-सज्ञा पुं॰ [ मं० राघव ] रोहू माली । उ०—(क) राहु वेधि राहना --क्रि० म० [हिं० राह ? ( = राह बनाना) या देश०] १ भूति करो नहिं समर्थ जग कोय । --मवल (शब्द॰) । (प) चक्की के पाटो को खुरदुरा करके पीसने याग्य बनाना । जाता राह वेवि अर्जुन होइ जीत दुरपदी ब्याह ।-जायसी (शब्द॰) । कूटना । २ रेती आदि को खुरदुरा करके रेतने के योग्य राहग्रसन - सज्ञा पुं० [सं०] मूर्य या चद्रमा को राहु का ग्रमना । गहरा । उपराग। राहना@+-क्रि० अ० [हिं० रहना ) दे० 'रहना' । उ०--हम मो राहगाह-तज्ञा ० [ मे० ] ग्रहण । उपराग। तोसो वैर कहा, अलि, श्याम अजान ज्यो राहत ।-मूर० राहुच्छत्र-सशा पुं० [सं० ] अदरक । अादी । (शब्द०)। गहुदर्शन-सज्ञा पुं० [ म० ] ग्रहण । उपराग । राहर--संज्ञा पुं० [हिं० अरहर ] अरहर नामक अन्न जिसकी राहुपाडा-राशा बी० [ ] ग्रहण । उपराग। दाल होती है। उ०--वहु गोधूम चनक तदुन अति । राहर राहुभेदो-सग पुं० [सं० राहुभेदिन ] पिणु । ज्वार ममूर लेहु रति ।-प० रासो, पृ० १७ । राहरीति--सशकी० [हिं० राह + सं० रीति ] १ राह रस्म । गहुमाता-मरा स्पी० [सं० ] राहु को माता, मिहिका । लेन देन । व्यवहार । २ जान पहचान । परिचय । राहुरत्न-सा पुं० [म.] गोमेद गणि जो गह के दोष का शमन करनेवाली मानी जाती है। राहा--सज्ञा पुं० [हिं० राह ] मिट्टी का वह चबूतरा जिसपर ची के नीचे का पाट जमाया रहता है। राहुल-सज्ञा पु० [सं० ] गौतम बुद्ध के पुत्र का नाम । राहित्य-सज्ञा पुं॰ [ सं० ] विहीनता। प्रभाव । ( किमी वस्तु वा ) राहुशत्र - सज्ञा पुं० स० ] चंद्रमा। न होना। उ०-दपि निश्चित रहो तुम नित्य यहां राहिल्य म० ] पहरण । उपराग। नहीं, साहित्य ।--माकेत, पृ० ४० । राहुस्पर्श-नरा पुं० [सं० ] ग्रहण । उपनग । राहिन--मज्ञा पुं० [अ० ] रेहन रखनेवाला । वयक रसनेवाला । राहूच्छिष्ट राहत्य-सधा ० [ सं० ] लहमुन । राहिम-वि० [अ० ] जो रहम कर । पा करनेवाला (को॰] । । राहेल- गश पुं० [ यह ] यारियों को एफ उपजाति । ८-५१ बनाना। GO राहुसूतक-लसा पुं० [