पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/४१७

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म० अ० होती है। रिखण ४१७६ रिक्य रिखण-सञ्ज्ञा पुं॰ [ सं० रिक्षण ] १ फिसलना । लडखडाना । २ रियायत-सञ्ज्ञा स्त्री० [अ०] १ वह अनुग्रहपूर्ण व्यवहार जो साघा- विचलित होना । हिगना । ३ दे० 'रिंगण' (को॰) । रण नियमो का ध्यान छोडकर किया जाय। कोमल और रिंग-सज्ञा स्त्री० [अ०] १ अंगूठी। छल्ला । २ किसी प्रकार की दयापूर्ण व्यवहार । नरमी। जैसे - गरीबो के साथ रियायत गोल बडी चूडी । ३ घेरा । महल । होनी चाहिए । २ न्यूनना । कमी । छूट । जैसे,—दाम मे कुछ रियायत कीजिए। (ख) अब बीमारी मे कुछ रियायत है। चौ०-रिंग मास्टर = सरकस का वह खिलाडी जो घिरी हुई भूमि ३ सयाल । ध्यान । विचार । जैसे,—इस दवा मे बुखार को मे विभिन्न जानवरो के कर्तव दिखलाता है। भी रियायत रखी है। रिंगण-सज्ञा पुं० [सं० रिंगण ] १ रेंगना । २ फिसलना। क्रि० प्र०- करना ।-रसना !-होना । सरकना । ३ विचलित होना। डिगना। रियायती-वि० [अ० रियायत + ई (प्रत्य॰)] रियायत किया रिंगन-सञ्चा ली० [ रिङ्गण ] घुटनों के बल चलना । रेंगना । हुधा । जिसम रियायत की गई हो । उ०—पुनि हरि प्राय यशोदा के गृह रिंगन लीला करिहैं।- रिश्रआया-सज्ञा स्त्री॰ [ ] प्रजा। सूर (शब्द०)। रिंगनी-सज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] एक प्रकार की ज्वार जो मध्य प्रदेश में रिकवछ-सश स्त्री० [दश०] एक भोज्य पदार्थ जो उर्द की पीठी और प्रमई के पत्ते मे बनता है। रिंगल-सज्ञा पुं० [ देश० ] एक प्रकार का पहाडी बाँस जो दारजिलिंग विशेप-अरुई की पत्तियो को बारीक काटकर उर्द की पीठी के मे होता है। साथ मिला देते हैं और फिर उसी के गुलगुले को घी या तेल मे रिंगानाgf-क्रि० स० [ स० रिंगण] रेंगने की क्रिया कराना । छान लेते हैं । रेंगना । उ०-सुनतहि वचन माथ तब नाई। तब भीतर कई रिकशा-सहा स्मी० [अ० रिक्शा ] एक प्रकार की छोटी गाडी दीन्ह रिंगाई।- कबीर सा०, पृ० २५६ । २ धीरे धीरे जिसे प्रादमी सोचते हैं और जिसमें एक या दो भादमी चलाना । ३ घुमाना । फिराना । दौड़ाना । चलाना वैठते हैं। (बच्चो के लिये ) । उ०-मैं पठवति अपने लरिका को प्रावइ मन विशेप--आजकल साइकिल रिक्शा और मोटर साइकिल रिक्शो बहराइ । सूर श्याम मेरो प्रति बालक मारत ताहि रिंगाइ।- का भी व्यवहार होने लगा है। सूर (शब्द०)। रिकसा-सञ्चा स्त्री॰ [ स० रिक्षा ] लीख । सयो० कि०-देना। रिकाव-मज्ञा सी० [अ० साव ] दे० 'रकाव' । रिंगिन-सच्चा स्त्री० [अ० रिगिंग ] वह रस्सी जिससे जहाज के रिफावी-सज्ञा स्त्री॰ [ अ० ] दे० 'रकाबी। मस्तूल प्रादि बांधे जाते हैं । (लश०) । रिक्त'-वि० [सं०] १ खाली। शून्य । जैसे,--रिक्त घट, रिक्त रिंछ-सज्ञा पुं० [हिं० रीछ ] दे० 'रीछ' । उ०—प्रापेटनि पुनि स्थान । २ निर्धन । गरीव । लपि जीव घात । गण सिंघ रिछ कुपि कोल घात ।-पृ० रिक्त-सशा पुं० बन । जगल । रा०,६८। रिक्तकुभ-सञ्ज्ञा पुं० [सं० रिक्तकुम्भ ] ऐसी भाषा जो समझ मे न रिंद'-सझा पुं० [फा०] १ वह व्यक्ति जो धर्म के विषय मे बहुत आवे । गडबद बोली। स्वच्छद और उदार विचार रखता हो । धार्मिक वधनो को रिक्तता-सञ्ज्ञा सी० [ 10 ] १ रिक्त या खाली होने का भाव । न माननेवाला पुरुष । उ०—रिंदो मे अगर जावै तो मुश्किल २ किसी पद, नौकरी या ध्यान का खाली होना ( वैकेंसी) है फिर पाना ।-नजीर ( शब्द०)। २. मनमौजी आदमी। (को०)। स्वच्छद पुरुप । ३ मद्यप । शराबी (को०) । रिक्तहस्त-वि० [ सं० रिक्त + हस्त ] १ खाली हाथ । अर्थशून्य । रिद-वि० १ मतवाला। मस्त । बेफिक्र । उ०—(क) जिंद जिसके हाथ मे कुछ न हो। उ०-बोला मैं हूँ रिक्तहस्त, सरिस रन रिंद चलत हल चल फनिंद ध्रुव ।- गिरधर इम समय विवेचन मे समस्त ।-प्रनामिका, पृ० १३१ । ( शब्द०)। (ख) विंध्याचल पर वसहिं पुलिदे । तह के नृप रिक्ता-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० ] चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी की तिथियो । ते झगरहिं रिदे ।-गिरधर ( शब्द०)। २ रसिया । रंगीना (को०)। रिक्तार्क-सज्ञा पुं० [ स० ] वह रिक्ता तिथि जो रविवार को पडे । रविवार को होनेवाली चतुर्थी, नवमी या चतुदशी। रिंदगी-~-वि० [फा० रिंद+गी (प्रत्य॰)] बुराई । पाप । रिक्ति - सज्ञा स्त्री० [सं०] वह पद या स्थान जिसपर अभी किसी मैलापन । उ०-सुदर मन के रिंदगी होइ जात संतान । की नियुक्ति न हुई हो [को०] । सुदर० प्र०, भा० २, पृ०७२६ । रिक्थ- सज्ञा पुं० [ सं० ] १ उत्तराधिकार या वरासत में मिला हुआ रिदा-वि० [फा० रिंद ] निरकुश । उद्दड । धन या सपत्ति । २ कारवार में लगी हुई वह पूजी जो रिअना-सज्ञा पुं० [ देश० ] एक प्रकार का कोकर। रीमा । सपत्ति, सामान आदि के रूप में हो (को०)। ।