पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/४६८

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लकवा ४२२६ लक्सना बोलते हैं के हमेशा जवान हरफत में अथे।-दनिखनी०, पृ० ३६५ लकवा-सज्ञा पुं० [अ० लक्वह, ] एक वातरोग जिसमे प्राय चेहरा टेढा हो जाता है। विशेप-यह रोग चेहरे के अतिरिक्त और अगो मे भी होता है, और निम श्रग मे होता है, उसे बिलकुन बेकाम कर देता है । इसमे शरीर के ज्ञानततुनो मे एक प्रकार का विकार श्रा जाता है, जिससे कोई कोई अग हिलने डोलने या अपना ठीक ठीक काम करने के योग्य नहीं रह जाता । इमे फालिज भी कहते है। पक्षाघात । क्रि० प्र०-गिरना। मुहा०-लकवा मारना या मार जाना = शरीर के किसी अग मे लकवे का रोग हो जाना। लकसी-मशा स्त्री० [हिं० लकड़ी + प्रकुमी ] फल आदि तोडने की लग्गी जिसके ऊपरी सिरे पर लाहे का चद्राकार फल या एक तिरछी छोटी लकडी बंधी रहती है। विशेष—इसी लग्गी को हाथ में लेकर कारी सिरे मे बंधी हुई छोटी लकडी या फल की सहायता से ऊचे वृक्षो के फल आदि तोडते लको'-सज्ञा पुं॰ [फा० लक्का ] दे० 'लक्का' । लका-सच्चा पुं० [अ० लका ] सहवास । मैथुन (को०] । लका-सा पुं० [अ० लका, लिका ] चेहरा। मुस। उ०-ये हदिया ले जा वादशाह वास्ते, वो रोशन लका मेहरोमा वास्ते ।-दक्खिनी०, पृ० २१५ । लफाटी-सपा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार को विल्ली जिमके नर जाति के प्रडकोशो मे से एक प्रकार का मुश्क निकलता है। लकालक-वि० [अ० लकलक ] माफ । स्वच्छ । लकीर-सशास्त्री० [सं० रेखा, हि० लीक ] १ कलम आदि के द्वारा अथवा और किसी प्रकार बनी हुई वह मीधी प्राकृति जो बहुत दूर तफ एक ही मीध में चली गई हो। रेखा । खत । मुहा०-लकीर का फकीर = वह जो विना समझे बुझे किसी प्राचीन प्रथा पर चला चलता हो। पाखें वद करके पुराने ढग पर चलनेवाला । लवीर पीटना = बिना समझे बूझे पुरानी प्रथा पर चले चलना । लकीर पर चलना= दे० 'लकीर पीटना'। क्रि० प्र०-करना । -खीचना ।-बनाना। २ वह चिह्न जो दूर तक रेखा के समान वना हो। ३ घागे। ४ पक्ति । सतर । ५ क्रम (को॰) । क्रि० प्र०—करना ।-सोचना।-नाना। लकुच'-मया पुं० [सं०] १ बउहर का वृक्ष और फल । लकुच-साशा पुं० [सं०] दे० 'लकुट' । लकुट'-सण सी० [म० लकुट( = लगुड)। लाठी । छडी । उ०-छोटी सो लकुट हाथ, छोटे छोटे बनवा साथ, छोटे से कान्हें देखात गोपी आई घरन की।-नद० २०, पृ० ३३८ । लट'-मशा पुं० [सं० लयुच ] १. मध्यम भाकार का एक प्रकार का वृन जो प्राय मारे भारत मे पोर विरोपत बगाल मे अधिकता से पाया जाता है। विशेप-इसकी डालियां टेढी मेढ़ी और छाल पतली और माफी रग की होती है । इसको व्हनियो के मिरे पर गुन्छो मे पत्ते रागते है जो अनीदार और गूरगर होत है । साथ मे गफेर रग के छोटे छोटे फूलो के भी गुध तगते है। २ इस वृक्ष का फन जो प्राय गुलाब जामुन के समान होता और वमत ऋतु मे पकता है । यह फ7 मीठा होता है और खाया जाता है । लुका । लसोट । लकुटिया-सशा सी० [ सं० लगुड + हिं० घा] २० 'लकुटी' । नकुटी -सशा स्त्री॰ [ स० लगुट] लाठी । छड़ी। उ०-या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिह पुर को नजि हारी।-रमखान०, पृ० १३ । लकुलीश- सज्ञा पुं॰ [ म० ] एक शैव मप्रदाय और उसके प्रवर्तक प्राचार्य का नाम । विशेष-लकुलीश वा नकुली ग सप्रदाय के पवर्तक लकुलोण माने जाते है । लिंगपुराण (२४।१३१) मे उनके मुख्य चार णियो के नाम शिक, गर्ग, मित्र और कौरुष मिलते हैं। प्राचीन- काल मे इसके अनुयायी बहुत थे, जिनमे मुख्य साधु (कनफटे, नाथ) होते थे । इस मप्रदाय का विशेष वृत्तान शिलालेखो तथा विष्णुपुराण, लिंगपुराण आदि मे मिलता है। इसके अनुयायी लकुलीण को शिव का अवतार मानते और उनका उत्पत्ति- स्थान कायावरोहण (कायागेहण, कारवान्, बटौदा राज्य मे) बतलाते थे। (विस्तृत विवरण के लिये देखें उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ० ४१५)। लकोटा-सज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का पहादी बकरा जिनके वालो से शाल, दुशाले प्रादि बनाए जाते हैं। लक्कड-सज्ञा पु० [हिं० लकडी ] काठ का वडा कुदा । लक्का-सरा पुं० [अ० लनका एक प्रकार का कबूतर जो र छाती उभाटकर चलता है प्रो- जिमका पूछ पन नी होती है। लक्का कवतर-मशा ० [हिं० लाका+यनर] १ नाच की एक गत जिसमे नाचनेवाला कमर का इतना गुरुना है कि गिर प्राय भूमि के निकट तक पहुच जाता । यह मुगव बगान की घोर होता है। २२० 'लाका'। लक्ख-वि• [ स० लक्ष, प्रा० नवव] २० 'लन'। लक्खन-सज्ञा पुं० [1० क्षण, प्रा० नपराग, रम्मश ७०-मुंवर वतीर्मा वपन राता । दमए नसन पर एक वाता-जायमी य०, पृ० २५१ । लक्खन -सरा पुं० [सं० ल. ] लक्ष्मगा जी। उ० - इन दो गए लखन है तरिका परिवो पिय पर परीकत ठाः। -तुमी... लक्खनाल-वि० [म० F क्षमा चाया। -नया ने उनः । उ०-गुवर वतीको सपन महा पापा भान ।-मानी 20 (गुप्त), पृ० ३०६। .