पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/४७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

लगालगी ४२३६ लगे लगे गिले अंगार। कहै कबीर छोर्ट नही ऐमी वस्तु नगार । - (शब्द०)। ५ वह जो किसी की ओर से भेद लेने के लिये भेजा गमा हो। वह जो किसी के मन की बात जानने के लिये किमी की ओर से गया हो। उ०-ौर सखो एक श्याम पठाई। हरि को विरह देखि भइ व्याकुल मान मनावन आई। बैठो प्रा३ चतुरई काछे वह कछु नहीं लगार । देवति हो कछु और दसा तुम बुझ ते वारवार ।-सुर० (शब्द०)। ६. वह जिारो घनिष्टता का व्यवहार हो । मेली। सवयी । ७ रास्ते के बीच का वह स्थान जहाँ मे जुपारी लोग जूग्रा खेलने के स्थान तक पहुंचाए जाते हैं। टिकान । विशेष-प्राय जूग्रा किमी गुप्त स्थान पर होता है, जिसके कही पास ही सकेत का एक और स्थान नियत होता है। जब काई जुपारी वहां पहुंचता है, तब या तो उसे जुए के स्थान का पता वतला दिया जाता है और या उसे वहां पहुंचाने के लिये कोई आदमी उसके साथ कर दिया जाता है। इसी सकेत स्थान को, जहाँ से जुारो जूमा खेलने के स्थान पर भेजे जाते हैं, जुआरी लोग 'लगार' कहते हैं । ८ वह जो पास या निकट हो । समीप को वस्तु । लगी या मटी हुई चीज । ०-दरिया सब जग आँचरा, मूझ नही लगार ।- दरिया० बानी, पृ० ३७ । लगालगी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० लगना (लंग का द्वित्त्वीकृत रूप)] १ लाग । लगन। प्रेम। स्नेह । प्रोति । उ०—(क) क्या वमिए क्यो निवहिए नीति नेहपुर नाहिं । लगालगी लोचन कर नाहक मन चंय जाहिं ।-विहारी (शब्द०)। (स) लगालगी लोपी गली लगे लागले लाल | गैल गोर गोपी लगे पालागो गोपाल ।- फैशव (शब्द॰) । २ सबध । मेलजोत्र । ३ उलझाव । फंसाव । उलझन (को०)। लगाव-ता पुं० [लगना + ग्रान (प्रत्य॰)] लगे होने का भाव । सवय । वास्ता । जैने,- क) 'न दोनो मकानो मे कोई लगाव नहीं है । (ख) में ऐसे लोगा से कोई लगाव नही र जता । लगावट-सज्ञा स्त्री० [हिं० लगता शावट (प्रत्य॰)] १ नवध । वास्ता । लगाव । २. प्रेम । प्रीति । लगन । मुदत । जैसे,- लगावट की बातें। लगावन-सशा सो [हिं० लगाव ] लगाव । सबध । वास्ता । उ०-हम है अफसर तुम हो वावन । हमरी तुमरी कहाँ लगा- वन ।-रामपण (शब्द०)। २ वह जिसके सहारे कुछ पुछ खाया जाय । जने,-दाल, नाक, चटनी, प्राचार, नमक, निचे आदि । ३ जलान की लकडी, उपला नादि धन । लगावना-क्रि० स० [हिं० लगाय+ना (प्रत्य॰)] दे० 'लगाना' । उल-केती लाए फौज और क्या आवनी । सो सब लेउ वुलाइ न देर लगावनी।-दन (गन्द०)। लगि'-अन्य० [हिं०] दे० 'लग' । लगि'--सशा की० [हिं० लग्यो ] दे० 'लग्घी' । उ०—(क) लहलहाति तन तरुनई लचि लगि ली सपि जाइ। लग लॉक लोवन भरी लोयन ले त लगाइ ।-विहारी (गन्द०)। (स) नाम लगि ल्याय लामा ललित बचन कहि व्याव ज्या विषय बिहानि वझावा -तुलमो (शब्द०)। लगित-वि० [स० ) १ सलग्न । मयुक्त । नवधिन। २ प्राप्त । पालन्ध । उपलब्ध । ३ प्रविष्ट । घुना हा [को०) । लगी-सा की. [ स० लगुड ] दे० 'लग्गी'। उ०-एहि विपचारइ सर बुधि ठगी । अउ भा काल हाथ लेइ लगी।--जापसी (गन्द०)। लगी--सचा सी० [हिं॰ लगना] १ प्रेम । मुहन्वत । प्राशनाई। उ०-हुजूर यह लगो बुरी होती है।--फिमाना०, भा० ३, पृ. ३३२ । २ स्वाहिश । इच्छा । ५ भूल । मुहा०-गी बुझता = मन की भूख मिटना । इच्छा पूरी होना । लगी लिपटी कहना = पक्षपातपूर्ण बात कहना । लल्लो चप्पो कहना । उ०—जो लगाए कहे लगी लिपटी। वे कभी वन मके नही मच्चे ।-चुभते०, पृ० १७ । लगुण-ग्रव्य. [हि०] दे० 'लग' । लगुड--संज्ञा पु० [ म० लगुड ] १. डड। डडा। लाठी। २ प्राय. दो हाथ लबा लोहे का एक विशेष प्रकार का डडा जिसका व्यवहार प्राचीन काल मे पैदल सैनिक अस्त्रो के समान करते थे। ३ लाल कनेर । यौ-नगुडवशिकाः = छोटी जाति का और पतला एक प्रकार का वांस । लगुडहस्त % छड़ी वरदार । लगुडी-वि० [ म० लगुडिन् ] हाथ मे लगुड लिए हुए । लगुडहस्त । दडवारा। लगुर--सज्ञा पुं० [ स० ] दे० 'लगुड' [को०] | लगुल' '--सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० लागूल ? ] शिश्न । (डि०) । लगुल - तज्ञा पु० [ म० ] दे० 'लगुड' किो०] । लगुवा--व० [हिं० लगना + उवा (प्रत्य॰)] १. पीछे लगनवाला । पीछे पीछ चलनेवाला । पिछ नग्गू । २. प्रेम करनेवाला । प्रेमी। लगनवाला । उ--पतवार माहन होरी को । लटुवा भयो फिरत दिन रजनी लगुवा गोरी भोरी को-घनानद, पृ० ५१६ । लगूर-सरा स्त्री॰ [सं० लान् गून्न ] पूंछ । दुम । उ०-जरा लगूर मु राता उहाँ । निकसि जो भा।ग भएउ पारमुहाँ ।-जायमा (शब्द०)। लगूल ५.----सा मी० [म० लागूल ] पूंछ । दुम । उ०---हनुमान हाँक सुनि बरपि न । नुर बार वार वरनाह लगून।--तुनी (शब्द०)। लगा-प्रव्य० [हिं० ] दे० 'लग' । लगे लगे-ज्ञा पुं० [हिं० लगाना ] वदर । परी के प्राने पर खिया प्रो.बच्चे नगे लगे' । हैं, और यदर का नाम लेना लोग ठीक नहीं प्राय 'बदर' के अर्थ में इस म .