पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/४८२

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लच्या DO लघुसत्व-वि० [ २ HO ४२४३ लघुसत्व ] दुर्बल या चंचल चित्तवाला। लचकनि-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० लचकना] १. लचीलापन । २. लघुसदाफला-सशा पी० [ स०] छोटी गूलर । कठूमर को०) । लचक । झुकाव घसमुत्य--सा पुं० [ सं०] कौटिल्य के अनुसार वह राजा या लचका-TI पुं० [हिं० लचकना ] एक प्रकार का गोटा। राज्य जो लडाई के लिये जल्दी तैयार क्यिा जा सके। लचकाना-क्रि० स० [हिं० लचकना ] किमी पदार्थ को लचने मे विशेष--गुरु ममुख्य और लघु समुत्य इन दो प्रकार के मित्रो मे प्रवृत्त करना । झुकाना । लचाना। कौटिल्य ने दूसरे को ही अच्छा कहा है, क्याकि उसकी शक्ति लचकीला-वि०[ हि० लचक+ईला (प्रत्य॰)] [वि० सो० लचकोली] बहुत नही होती, पर वह समय पर खडा तो हो सकता है। १ जो महज म लच या दब जाय । लचकने याग्य । पर प्राचीन प्राचार्य गुरु ममुत्य को ही अच्छा मानते थे, क्योकि लचकदार। यद्यपि वह जल्दी उठ नही सकता, पर जव उठना है, तब कार्य लचकहाँ पु-वि० [हिं० लचकना ] दे० 'नच कोला' । पूरा करके ही छोडता है। लचन-मज्ञा स्त्री॰ [हिं० लचक ] दे० 'लचक' । लघुसमुत्थान-वि० [सं०] १ शीघ्र उठनेवाला। २ तेज चलने- लचना-क्रि० अ० [हिं० लच+ना (प्रत्य०) ] दे० 'लचकना' । वाला [को०)। लचनि-मक्षा खी० [हिं० लच ] दे॰ 'लचक' । लघुसार -वि० [ ] निस्सार । उपेक्षणीय (को०] । लचर-वि० [१] १ लचने या झुकनेवानी। कमजोर । तथ्यहोन । लघहस्त -संज्ञा पुं० [सं०] वह जो बहुत जल्दी जल्दो बाण चला २ जो किसी स्तर पर टिक न मके। लचनेवाला । जमे-नवर सकता हो। शीघ्रवेवी। दलील, लचर तर्क। लघुहमदुग्धा-सच्चा स्त्री॰ [ स० ] कठगूलर (को०] । लचलचा-वि० [हिं० लचना ] जो लचक जाय। लचीला । लघूक्ति-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० ] सक्षेप मे अभिव्यजना का ढग [को०। लचकनेवाला। लघूत्थान - वि० [ स० ] दे॰ 'लघुसमुत्थान' [को०] । लचलचापन - सज्ञा पुं० [हिं० लचना ] लचीला होने का भाव । लध्वाशी-वि० [सं० लब्बाशिन् ] अल्पाहारी। थोडा खाने- लचीलापन। वाला (को०] । लचाकेदार-वि० [हिं० लचक + फा० दार (प्रत्य॰)] मजेदार । लघ्वाहार--वि० [सं० ] दे० 'लघ्वाशी' [को०) । वढ़िया । ( बाजारू)। लवी-संज्ञा स्त्री० [सं०] १ वेर नामक फल । २. असवरग । लचाना-क्रि० स० [हिं० लचना का मक० रूप ] लचकाना । स्पृक्का । ३ छाटा स्यदन । एक प्रकार का रथ (को०)। ४ झुकाना। दुबली पतली कोमलागेनी । तन्वगो स्त्री (को०)। लचार-वि० [फा० लाचार ] ३० लाचार' । लघ-सज्ञा पुं० [हिं० लचना ] लचकने को क्रिया । लचक । लचारी'-ससा वी० [फा० लाचारी } दे० 'लाचारी'। लचक'-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० लचकना ] १ लचकने को क्रिया या भाव । लचारी-सग सी० [दश०] १ वह कर जो कोई व्यक्ति प्रश्न से लचन । झुकाव । वडे को देता है। भेंट। नजर । उ०-विमल मुक्तमाल लमत कि. प्र-खाना -जाना । उच्च कुचन पर मदन महादेव मना दह है लचाग ।-सुर २ वह गुण (जसके रहने से कोई वस्तु दबती या झुकती हो। (शब्द०) । २. एक प्रकार का गीत । नचारा। यो०-लचकदार = दे० 'लचाकेदार' । लचारी-सशा सी० [हिं० अचार । एक प्रकार का प्राम का प्रचार लचक'- सहा सी० [श० ] एक प्रकार की नाव जा ६०-७० हाय जो खाला नमक से बनता है प्रार (जराम तल नहीं पटता। लबी होती है। अचारी। विशेष-यह मकसूदाबाद को तरफ बनती है और इसे बहुत से लोग मिलकर सेते है। लचुई। -सा सी० [N०] मंदे की बना हुई पतलो और मुनायम लचकना-क्र० प्र० [हि० लच (अनु०)] १. किसी लवे पदार्थ का पूरी । लुच्ची । लुतुइ। वाझ पडन या दवन प्रादि के कारण बीच से झुकना । लन्छ-सथा पुं० [सं० लव १. व्याज । वहाना । म । लचना । जैस, यह छडी बहुत कमजार है जरा सा वाझ दन २. वह वस्तु या स्थान ।जमगर शक्षसानाहा निशाना। से ही लचक जाती है। ताक। उ०-जीभ कमान वचन सर नाना। मन माह सयो क्रि०-जाना। मृदु लन्द समाना।-मानन, २०४१ । २.त्रियो को कमर का कोमलता या नगर आदि के कारण लन्छ'-.1 पु० [सं० लद गोमार फानना । सस । झुकना । जैसे,-जब चलता है, तब उसकी कमर लचकती है। लच्छ'-सहा सो [ में लक्ष्मी, प्रा. सच्चस, नच्या 'मा। ३. स्त्रिया का कोमलता या नसरे आदि के कारण चलने क उ०-क) चह लच्च वावर या नाई। महसत सय समय रह रहकर अवाना । जत,-ह जब चलता है, तव कित हाइ।-जायसा (च-३०)। (२)नरस्ताव माता मन सचकती चलती है। मजारमलच्या जाई-जुलता० २२५ ।