पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मर्त्यधर्मा ३८०८ मर्दुमशुमारी मर्त्यधर्मा-वि० [सं० मर्यधर्मन् ] मरणशील । नश्वर [को॰] । मर्त्यभाव -सज्ञा पुं० [सं० ] मानव स्वभाव । मानवीय प्रकृति [को०] । मर्त्यमुख-मज्ञा पुं० [ सं० ] [ सी० मत्यमुत्री ] किन्नर । मर्त्यलोक-सज्ञा पुं० [ पृथ्वी । मनुष्यलोक। मर्द' -सञ्ज्ञा पुं० [फा०, तुल० सं० मत और मर्त्य ] १ मनुष्य । पुरुप । प्रादमी। २ साहसी पुरुष । पुग्पार्थो मनुष्य । उ०- मर्द शीश पर नवे मर्द बोली पहिचाने । मर्द खिलावे खाय मर्द चिंता नहिं पाने । मर्द देय श्री लेय मर्द को मर्द वचावे । गहिरे संकरे काम मर्द के मर्दै आवं। पुनि मर्द उन्ही को जानिए दुस सुख साथी कर्म के। बैताल कहै सुन विक्रम, तू ये लक्षण मर्द के ।-(शब्द०)। महा०-मर्द श्रादमी = (१) भला आदमी। मभ्य पुरुष । (२) वीर । वहादुर । मदं वच्चा = वीर वालक । मदं की दुम अपने को वहादुर लगानेवाला (व्यग्य)। उ०—बडे मर्द की दुम हो गोली चलायो न जब जानें ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० १०॥ ३ वीर पुरुप । योद्धा। जवान । उ०—चलेउ भूप गोनर्द वर्द वाहन समान बल । सग लिए बहु मर्द गर्द लखि होत अपर- दल । —गिरधरदास (शब्द०)। ४ पुरुष। नर । जैसे-मर्द और औरतें। ५ पति । भर्ता । मर्द-सज्ञा पुं० [स० ] पीसना । मर्दन [को०] । मर्दक-वि० [सं० ] दे० 'मईक'। मर्दन-सज्ञा पुं० [सं० ] दे० ' मन'। उ०—(क) तेरा नाम तभी है, अव तू इस रावण सरीखे शत्रु का मुकुट अपने चरणतन मे मर्दन करे ।-राधाकृष्ण (शब्द०)। (ख) मर्दनीक मर्दन करें वढे धात तन बेल । पृ० रा०, ६।१३० । मर्दना-क्रि० स० [ स० मदन ] १ अग आदि पर जोर से हाथ फेरना । मालिश करना । उ०—तन मर्दति पिय के तिया, दरमावति झुट रोप ।—पद्माकर (शब्द०)। २ उवटन तेल आदि को अगो पर चुपडकर वलपूर्वक चुपडे हुए स्थान पर बार बार हाथ फेरना जिससे अग मे उसका सार या स्निग्ध अश घुस जाय । मलना। ३ चूर्णित करना। तोड फोड डालना। ४ मसककर विकृत करना । नाश करना । कुचलना । रांदना । उ०—(क) कबहुं विटप भूधर उपारि पर सेन वरक्खे । कबहुं वाजि सन वाजि मदि गजराज करक्खे । तुलसी (शब्द॰) । (ख) खाऐसि फल अरु विटप उपारे । रच्छक मदि मदि महि डारे । —तुलसी (शब्द०)। (ग) जेहि शर मघु मद मदि महामुर मर्दन कीन्हो। मारयो कर्कश नरक शख हनि शख सुलीन्हो । केशव (शब्द॰) । मर्दनीक-वि० [सं० मईन + हिं० ईक (प्रत्य॰)] मर्दन करनेवाला । मालिश करनेवाला। उ०—करि पावन पवित्र बर मोहन सुरभि सुतेल । मर्दनीक मर्दन कर, बढे धात तन वेल । —पृ० रा०, ६।१३०॥ मर्दल-सञ्ज्ञा पुं० [ स० ] पखावज के ढग का एक प्रकार का वाजा जिसका व्यवहार प्राय बगाल मे कीर्तन आदि के समय होता है । मादल । मल। मर्दानगी-सश सी० [फा० ] ३० 'गग्दानगी' । मर्दाना-वि० [फा० मदानह ] १ पुग्प मवयो। २ मनुष्योचित । ३ वीरोचित। वीर । गाहगी।" पुग्प का मा । पुरपयत् । यौ०-मर्दानावार = पीरोचित । मर्द का मा । मर्द की तरह । मर्दित-वि० [सं०] ८० 'मद्दित' । मर्दी-मशा सी० [फा० ] मरदानगी । वीरता । वहादुरी। मर्दुप्रा-सा पुं० [फा० मदं + हिं० उथा (प्रन्य०) ] १ नाम का मर्द । तुच्छ मनुप्य । २ पति । ३ पराया वा गैर प्रादमी (स्त्रिया)। मर्दुम -मग पुं० [फा०] १ मनुष्य । आदमी । २ अन्य की पुतली। कनीनिका (को०)। यो०-मदुमयाजार = अत्याचारी। ममश्राजारी = लोगों को सताना। अत्याचार । मटुमयामेज = लोगो में घुलमिलकर रहनेवाला। मदुमपोर । मर्दुमशनास = बुरे भने की परख करनेवाला । मर्तुमशुमारो। मर्दुमक-मशा पुं० [फा०] कनीनिका । अाग्य को पुतली (फो०] । मदुमखोर-वि० [फा० मर्दु'मोर ] मनुष्य को खा जानेवाला । नरभक्षी । उ०—लगा काटनेवालों पौर रक्तपिपानु मर्दुमखोरो के बीच मा फंसा है। -प्रेम० मोर गोर्को, पृ०७ । मर्दुमशुमारी-सशा ली० [फा०] १ किसी देश मे रहनेवाले मनुष्यो की गणना । मनुप्यगणना । जनगणना। विशेप-यद्यपि भारतवर्ष के मदराम पौर पजाब प्रातों मे समय समय पर वहा के रह्नेवालों की गिननी करने की प्रया बहुत पूर्व से चली पाती थी, पर पाश्चात्य देशो में नवीन प्रणाली की मनुष्यगणना को प्रया रोम से प्रारभ हुई है, जहाँ स्वतन मनुष्यो के फुटु ब, सपत्ति, दाम और मुसिया की परिस्थिति श्रादि का विवरण यथाममय लिखकर मनुष्यो को गणना की जाती थी। इगलैंड मे मवसे पहले मनुष्यगणना मन् १८०१ मे प्रारभ हुई और १८११ मे प्रायरल ड मे गणना की चेष्टा हुई पर मन् १८५१ तक की मनुष्यगणना परिपूर्ण नहीं कही जा सकती । सन् १८६१ मे नियमित रूप मे इंगलैंड, स्काटलैंड और आयरलैंड मे मनुष्यगणना प्रारभ हुई, जिसमे प्रत्येक गांव और नगर के मनुष्यो की प्रायु, वैवाहिक सवय, पेशे, जन्मस्थान श्रादि का सविस्तार विवरण लिसा गया, और सन् १८७१ मे व्यवस्थित रूप मे गजकोय या इपीरियल मनुष्यगणना हुई। ठीक इसी समय अर्थात् सन् १८६७ और १८७२ मे भारतवर्ष में भी मनुष्यगणना प्रारभ हुई। पर उस समय काश्मीर, हैदरावाद, राजपूताने और मध्यभारत के देशी राज्यो मे मनुष्य- गणना नहीं हुई और गणना का प्रवध भी समुचित नही था । भारतवर्ष की ठीक ठोक मनुष्यगणना का भारभ १८८१ से माना जा सकता है। यह मनुष्यगणना १७ फरवरी को हुई थी। तवसे प्रति दसवें वर्ष प्रत्येक गांव और नगर में रहने-