पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/४९२

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लड्याना ४२५३ लताकस्तूरिका लड्याना@-क्रि० स० [हिं० लाड (= प्यार)] लाड प्यार करना । मे मटर के माथ वोया जाता है और जिगमे चिपटी चिरटी दुलार करना । उ०-को मृगछीना मो क्यो पग तेरे तजे जाहिं फलियां लगती हैं। पूत लो लाड लज्यावति है। - लक्ष्मण (शब्द०)। (ख) कहते विशेष-इसके दानो से दाल निकलती है जिगे गरीब लोग साते हैं कि भर्ती की लख्याई हुई उस चडी ने उमके प्रतिज्ञा किए हुए है। यह बहुत मोटा अन्न माना जाता है। इमे 'मोट' और दो वरदान उगले ।- लक्ष्मण (गन्द०)। 'खेसारी' भी करते हैं । पणचारा के रूप में काम प्राता है। लढत-मज्ञा पु० [ म० लुण्ठन (= लुटकना) ] कुश्ती का एक पेच जो लतरो-सा सो० [हिं० लात ] एक प्रकार को लकी जूती जो मुरगो या खरगोशो की लडाई वा गनुकरण है । केवल तले के रूप में होती है और अंगूठे को फंमाकर पहनी जाती है। चप्पल । लढा- स पुं० [हिं० नुढ़ना ] बैलगाडी । लतहा-वि० [हिं० लात+हा (प्रत्य॰)][ वि० सी० लतही ] लात लढ़िया-सद्धा सी० [हिं० लुढना, लुढकना या हिं० लढा+इया मारनेगला (बैल या घोडा)। ज से,-लतही घोडी । (प्रत्य॰)] बैलगाडी। लतागी-सश स्त्री॰ [ स० ] कर्कट शृ गी । काकडामोगी। लत-मज्ञा स्त्री० [ स० रति (= अनुरक्ति, लीनता)] किमी दुरी बात लता-सा स्त्री॰ [म. ] १ वह पौधा जो मूत या डोरी के रूप मे का अभ्यास और प्रवृत्ति । बुरी नादत । दुर्व्यसन । वुरी टेव । जमीन पर फैले अथवा किमी खडी वस्तु के माथ लिपटकर उ०-यह एक घृणा उत्पादक लत है।--कबीर म०, ऊपर की ओर चढे । वल्ली। वेल । वीर । पृ० १६७ । विशप-जिस लता मे बहुत सी शाखाएं इधर उधर निकलती कि० प्र०-पड़ना ।-लगना । है और पत्तियों का झापस होता है, उने सस्त में प्रतालिनी' लत-सा स्त्री० [हिं० ] लात । पाँव । पाद । यौगिक शब्दो मे कहते हैं। व्यवहृत । जैस,-लतखोर, लतडी ग्रादि । २ कोमल काड या शाखा । जैसे,- पद्मलता। लतखोर-वि० [हिं० लात + फा० खोर ] दे० 'लतखोरा' । विशप-सौदर्य, कोमलता और सुकुमारता का सूचक होने के लतखोरा-वि० [हिं० लत + पा० खोर (= खानेवाला) ] [वि० कारण 'बाहु' या 'भुज' शब्द के साथ कभी कभी 'लता' शब्द स्त्री० लतरवोरिन J[सशा लतखोरी] १ सदा लात खानेवाला । लगा दिया जाता है। जैसे,—बाहुलता, भुजलता । सुदरी सदा ऐसा काम करनेवाला जिसके कारण मार खानी पडे स्त्री के लिये भी 'कचनलता', 'कनकलता', 'कामलता', 'हेमलता' या भला बुरा सुनना पडे । २ नीच । कमीना। आदि शब्दो का प्रयोग होता है। जैसे,—(क) गहि शशिवृत्त लतखोरा--सज्ञा पुं० १ दास । किंकर | गुलाम । २ देहली । दहलोज नरिद सिढी लघत ढहि थोरी। कामलता कल्हरी प्रेम मारुत चौखट । ३ दरवाजे पर पडा हुग्रा पर पोछने का काडा । झकझारी ।--Z० रा०, २५३३८१। (स) मानो किलता कचन पायदाज । गुलमगर्दा । लहरि मत्ता वीर गजराज गहि |–१० रा०, २५१३७४ । लतड़ो' -संशा स्त्री॰ [देश०] केसारी नाम का अन्न । ३ प्रियगु ४ स्पृक्का । ५ अशनपर्यो। ६ ज्यातिप्मती लता। ७ माधवी लता । लतडी-पश सो० [ हिं० लात (= पैर + टी (प्रत्य॰)] एक प्रकार ८ दूर्वा । दून। ६ कवतिका । १०. सारिवा। की जूती जिसमे कवल तला ही होता है । ११ जातिपुष्प का पौधा। १२ सु दरी स्त्री। कृशोदरी। १३ मोतिया की लरी (को०)। १५ कशाघात या लतपत-वि० [अनु॰] दे॰ 'लथपथ' । उ०-एक भैसा कीचड चाबुक । कोडा (को०)। से लतपत पाया और उस फर्श के ऊपर बैठ गया ।-कबीर लताकरज-सज्ञा पुं० [ सं० लताकरज ] एक प्रकार का करज या म०, पृ० १५६ । कजा । कटकरेज। लतमर्दन-सज्ञा सी० [हिं० लत (= लात) + मं० मर्दन ] १ लातो पर्या-दुष्पर्ण । वीराय । वचमाजक । पनदाक्षी। कटफन । से दवाने की क्रिया। पैरो से रोदने की क्रिया। २ लाती को मार । पदाघात । कुवेराक्षी। लतर-सज्ञा स्त्री० [ स० ता] वेल । वल्ली। विशेष वंद्यक में यह कटु, उरण और वात कफ-नाशक कहा गया है। इसका बीज दोपन, पथ्य तथा गुल्म और विप को लतरा-सा ग्री० [देश॰] एक प्रकार का मोटा अन्न जिरो 'बावरा' दूर करनेवाला माना जाता है । और 'रॅवध' भी कहते है। इसकी फलियो की तरकारी भा बनाई जाती है। लताकर- पु. [ म०] नाचने मे हाथ हिला का एक प्रकार । लताकस्तूरिका-सरा सी० [सं०] एक पौधा जो दक्षिण में लरिया सण सी० [हिं० लतरी+व्या (प्रत्य॰)] रे लनडी' । होता है। उ० मान ससुर को लातन भारत खमम को मारत लतरिया। -पनीर श०, भा० २ १०५६ । विशेप-वंद्य मे से नित्तस्यादु, वृष्य, शील, लघु, नेयो को हितकारी तथा श्लप्मा, नृप्या और मुखरोग को दूर करने- लतरी-समा यो दिश०] एक प्रकार को पास या पौधा जो पेतो वाली नाना है । इसे लवापरखरी भी परत है।