पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/५०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

लयन ४२६२ लराक मुहा० - लय देखना-ठीक लय मे गाना। घोर । धुनि सुनि भूमि भूपर लरखरे ।-तुलसी (शब्द०)। ३ मगीत मे सम । ३ दे० 'लडखडाना'-३ । लयन-मज्ञा पुं० [१०] १ विश्राम । लय । शाति । २ आश्रय । लरजना-क्रि० प्र० [फा० लरजा (= कप) ] १ कांपना । हिलना। विश्रामस्थान । ३ आश्रयग्रहण । श्राड लेना । पनाह लेना। उ०—(क) पात विनु कीन्हे ऐसी भाति गन बलिन के, परत न जयनालक-संज्ञा पुं० [सं०] वौद्ध वा जैन सप्रदाय का मदिर [को०] । चीन्हे जे ये लरजत लुज हैं। -पद्माकर (शब्द॰) । (ख) चचला चमार्क चहुँ पोरन ते चाह भरी, चरज गई ती फेर चरजन लयपुत्री-सा सी० [सं०] नटी । अभिनेत्री किो०] । लागी री । कहै पद्माकर लवगन की लोनी लता, लरज गई ती लयारभ-सञ्ज्ञा पुं० [सं० लयारम्भ ] अभिनेता । नर्तक [को०] । फेर लरजन लागो री।-पद्माकर (शब्द०)। लयार्क-सज्ञा पुं० [सं०] प्रलयकालीन सूर्य (को०] । सयो क्रि०-उठना । -जाना । लयालभ-नज्ञा पुं० [सं० लयालम्भ ] नट । अभिनेता किो०] । २ भयभीत होना। दहल जाना। डरना । उ०—(क) शरण लर-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ पा० ल8 ] दे० 'लह' । उ०—नद के लाल राखि ले हो नदताता। घटा आई गरजि, युवति गई मन होउ मन मोर । हौं वाठ पोवत मोतियन लर कांकर डारि चले लरजि, वीजु चमकति तरजि, डरत गाता ।—सूर (शब्द॰) । सखि भोर ।—सूर (शब्द०)। (ख) लाजन ही लरजो गहिरी व.जो गहिरी वहिरी किहि लरकई -मज्ञा स्त्री॰ [हिं०] दे॰ 'लडकाई' या 'लरिकाई' उ० दाइन । -देव (शब्द०)। जदपि हते जोवन नवल मधुर लरकई बारु । पं उत चतुराई क्रि० प्र०-उठना। जाना।-पडना । अधिक प्रगटन रम व्यवहार । - हरिश्चद्र ( शब्द०)। लरजाँ-वि० [ फा० लरजां ] कॉपनेवाला [को॰] । लरकना@f-कि० अ० [सं० लडन ( - झूलना ) | १ लटकना । लरजा-सञ्ज्ञा पुं० [फा० लरजत् ] १ कप । कपकपी । थरथराहट । उ०-चोटी गुही मोती अमल, तिन जानु लौ लर लरकती। २ भूकप । भूचाल । ३ एक प्रकार का ज्वर जिसमे रोगी का मनु शरद वारिद की घटा जल बिंदु अवलो ढरकती।-रघुराज शरीर ज्वर आते ही काँपन लगता है । जूडी। ( शब्द०)। २ झुकना । ३ खिसककर नीचे पाना। लरजिश-सज्ञा स्री० [फा० लजिश ] काँपने या थरथराने का भाव । सयो० क्रि०-जाना ।-पडना । कपकंपी (को०] । लरका-सज्ञा पुं० [हिं॰ लडका] दे॰ 'लडका' । लरमर-वि० [हि० लड+ झडना ) वरसता हुआ। बहुत लरकाना@T-क्रि० स० [हिं० लरकना ] १ लटकाना। २ आधक परिमाण में प्राप्त। प्रचुर । उ०-लोचन लेति लगाइ भुकाना। ३ नीचे खिमकाना । ललक के लाल सलोना। लरझर ललित लुनाई ऐसी भई न लरकिनी@--सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० लडकी ] दे० 'लडकी'। उo- होनी ।-प्यास (शब्द०)। वधू लरकिनी पर घर आई । राखेहु नयन पलक की नाईं। जरना क्रि० प्र० [हिं० लडना । लडना' । उ०-भाजि गई तुलनी (श द०)। लारकाई मनो लरि क करि के दुई दुदु भ प्राधे । - १माकर (श-५०)। लरखरना-क्रि० प्र० [अनु० ] दे० 'लरखराना' वा 'लड- लरनियो- सशा सी० [f६० लडना ] १ युद्ध लडाई । उ०-मरे खडाना' । उ०--दिग्गयद लरखरत परत दसकठ मुक्ख भर ।- जय इहई माच परयो। मन क ढग मुनो री सजनी जैसे, तुलसी (श द०)। मोहिं निदर यो। पापुनि गयो सग सग लीन्हे प्रवमहि इहै लरखरनि-सज्ञा स्त्री० [हिं० तरखराना] १ लडखडाने को वर्यो। मा मो वर प्राति करि ह र सो ऐमी लरने क्रिया या भाव । गगाहट । २ चलन या खडे होने मे लग्यो। गो त्या नन रहे लपटाने तनहूँ भेद भर्यो। सुनह पर न जमने का भाव । उ०—(क) हरजू को बाल छवि सूर भनाइ इनहुँ का अब ला रह्यो ड.यो ।-मुर (शब्द॰) । कहो वरन । सकल सुख की सीव कोटि मनोज सोभा हर न । २ युद्ध करने का ढग । लहन का ढव । उ०-नामी लूम लसत पुण्य फल अनुभव त सुतहिं दिलो क के नंद घर न । लपेटि पटकत भट, देखा देखो लखन लरनि हनुमान की। सूर प्रभु की बराी उर किलकनि ललित लरखरनि ।—सूर - तुलसी (शब्द०)। (शर०)। तराई-सक्षा बा० [हिं० लडना ] दे० लडाई'। उ०—(क) लरसराना-क्रि अ० [हिं०] १ झ का खाना । डगमगाना। तह पर अनक लराई। जाते सवल भूप वरिपाई।- डिगना। उ०—(क) धनि जसुमति वड भागिनी लिए स्याम तुलसा (शब्द॰) । (ख) खजन नन बोच नासा पुट राजत यह खेलावै। लरखगत गिरि परत है चलि घुटुरुवनि धावै ।- अनुहार । सजन युग मानो लरत लराई कीर वुझावत रार ।- सूर (शब्द॰) । (ख) रघुनाथ दौरत मे दामिनी सी लमति सूर (शब्द॰) । है, गिरति है, फेरि उठि दौर.त है लरखगति । -रघुनाथ ल।क-वि० [हिं० लड़ना, लरना+पाका (प्रत्य॰)] दे० 'लडाका'। (शब्द०)। (ग) वेचते लरखराते पैरो से । प्रेमघन॰, भा॰ २, उ०-लर लराक लाख मह एका तीर अचूक चलावै ।-सत. पृ० १४३ । २ डगमगाकर गिरना । उ०-गजउ सो गरजेउ दरिया, पृ० ११५।