पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/५०२

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उल- लराका ४२६३ लल चना लगका-वि० [हिं० ] 'लडाका' । प्रमवस निज महिमा विसरी ।—सूर (शब्द॰) । (ख) कविरा मोतिन की लरी हीरन को परगाम। चांद सुरुज को गम लरिक'@-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० लरिका ] बचपन । उ०—लटकि लटकि सेलत लरिकाई। लरिक समै जनु भूपन पाई।-नद० ग्र०, नही तह दरमन पावै दास ।-कबीर (शब्द॰) । पृ० १२० । लर्ज-सज्ञा पुं० [हिं० लरजना ] सितार के एक तार का नाम । लरिक-सशा पुं० [ स० लाल, हिं० लरिका ] दे० 'लडका'। उ०- यह छह, तारो मे पांचवां और पीतल का होता है। अवर लरिक की सका पाह। तासौं ठाढो किती लिलाइ । ललतिका-सहा स्त्री० [सं० ललन्तिका ] १ नाभि तक लटकनी -नद० ग्र०, पृ० २४७ । हुई माला या हार । २ गोह । लरिकई-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० लरिका ] १. लडकपन । वाल्यावस्था । लल-वि० [स० ] १ विनोदी। क्रीडाप्रिय । २ कपित । हिलता उ.-निरखि नवोढा नारि तस छुटत लरिकई लेस । भो हुआ। लपलपाता हुआ । जैसे, ललजिह्व । ३ इच्छुक प्यारो प्रीतम तियन मानहुं चलत विदेस । -विहारी (शब्द॰) । आकाक्षी [को॰] । २ लडकपन की चाल । लडको का व्यवहार । लल-सञ्ज्ञा पुं० [सं० ललम् ] १ शाखा । फुनगी। अकुर । २. कि० प्र०- करना । वाटिका । उद्यान [को०)। ३ चपलता। चचलता। उ०-लाल अलौ कक लरिकई लखि ललक-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ सं० ललन (= लालमा करना) ] प्रवल अभि- लखि सखी सिहाति । आज काल्हि मे देखियत उर उकसोही लापा । गहरी चाह । उ०—महारांनी कौशल्यादिक तुम भांति ।-विहारी (शब्द०)। लिखती वारहिं वारा। दुलहिन दूलह देखव केहि दिन लागी लरिक सलोरी-सज्ञा स्त्री० [हिं० लरिका + लोल (= चचल) ] ललक अपारा । रघुराज (शब्द०) लडको का खेल । खेलवाह। ललकना-क्रि० अ० [हिं० ललक +ना (प्रत्य॰)] १ किसी वस्तु लरिका-सज्ञा पुं० [स्त्री० लरिकिनी] दे॰ 'लहका'। उ०- को पाने की गहरी इच्छा करना। लालसा करना । ललचना । (क) देखि कुठार वान धनुधारी। भई लरिकहिं रिस वीर -(क) ललकत स्याम, मन ललचात । —सूर (शब्द॰) । विचारी । —तुलसी (शब्द०)। (ख) खेलन को मैं जाउं नहीं । (ख) ललक्त लखि ज्यो कगाल पातरी सुनाज की । तुलसी और लरिकनी घर घर खेलति मोटी को पै कहत तु ही। (शब्द॰) । २. अभिलाषा से पूर्ण होना। चाह की उमग से —सूर (शब्द०)। भरना । उ०-बलकि वलकि बोलत वचन, ललकि लनकि लरिकाईल सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० लडका + प्राई (प्रत्य॰)] १ लडकपन । लपयाति ।-(शब्द०)। वालपन । बाल्यावस्था। उ०—(क) लरिकाई को नेह कही ललकार-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० लडना या 'लेले' अनु०+कार ] १ युद्ध सखि कैसे छूट ।—सूर (शब्द०) । (ख) तात कहई कछु के लिये उच्च स्वर से प्राह्वान । लडने के लिये तैयार होकर करहुँ ढिठाई। अनुचित छमउ जानि लारेकाई । तुलसी शत्रु या विपक्षी से पुकारकर कहना कि यदि हिम्मत हो, (शब्द०)। (ग) भाजि गई लरिकाई मनो लरिफ कार के तो पाकर लह। प्रचारण । हांक । जसे,-ललकार मुनार दुई दुदुाभ प्राव ।- पद्माकर (शब्द॰) । वह सामने पाया। २ किसी को किमी पर आक्रमण करने व्यवहार या पाचरण । ३ चपलता। के लिये पुकारकर उत्साहित करना । लडने का बढ़ावा । लरिकिनि-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० लहका ] दे० 'लडकी' । उ०—तव वह लरिकिनि वाके घर मे जैन धर्म अनाचार भ्रष्ट देखि के ललकारना-क्रि० स० [हिं० ललकार+ना (प्रत्य॰)] १ युद्ध के लिये उच्च स्वर से प्राह्वान करना। लड़ने के लिये तैयार मन मे वोहोत दुख परन लागी।-दो सौ वावन०, भा० १, होकर विपक्षी से पुकारकर कहना कि हिम्मत हो, तो पा पृ०३८ । लड। प्रचारण । हाँक लगना । जमे,-युद्ध के लिये मुपीव लरिया-सञ्ज्ञा पुं॰ [देश॰] उपवस्द । दुपटा । दुपट्टा । ने बालि को ललकारा। २ किसी पर आक्रमण करने लरिकी-सज्ञा स्त्री० [हिं० लडकी ] दे० 'लडकी'। उ.-या के लिये किसी को पुकारकर उत्साहित करना । लड़ने के लिये लरिकी को तुमही कहूं पाछौ घर, वर देखिक यहाँ ते दूरि उकसाना या वढावा देना । जैसे,—तुम्हारे लनकारने से ही देस मे कहूं याको विवाह करि प्रायो।-दो सौ बावन०, उसकी हिम्मत बढ़ी। भा० २, पृ० २५३ । ललचना-कि० अ० [हिं० लालच +ना (प्रत्य॰)] १ लालच करना । लरी-सशा सी० [प्रा० लठ्ठि ] दे॰ 'लडी'। उ०—(क) चपक पाने को प्रवन इच्छा करना। प्राप्त करने की अभिलापाने बरन चरन करि कमलनि दाडिम दशन लरी। गति मराल अधीर होना । २ मोहित होना । पासक्त होना । लुन्ध होना। अरु बिव अधर छवि अहि अनूप फवरी। अति करना उ०-मनि मंदिर सुदर सब साजू । जाहि लयत ललचन मुर- रघुनाथ गुमाई युग भर जात घरी। -सूरदास प्रभु प्रिया राजू । -रघुगम (२०६०)। ३. किसी बात को प्रवन न्या ८-६२ २ लडको का