पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/५३३

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रुके। 59 लिंगवृत्ति ४२६४ लिक्षिका लिंगवृत्ति-शा पुं० [८० लिट गवृत्ति वह जो केवल बाहरी चिह या है, जिसमें मुंह एकवारतो बंद न हो जाय और माद न वैश बनाकर अपनी जीविका पंदा करता हो। आडंबरी। टकोनलेवाज। लिटर, लिटल-ल्हा पुं० [अं० लिटेन ] लोहे की हडो का जात लिंगशरीर-गुहा पुं० [३० लिट गशरीर] ३० "लिंगदेह' । वांवकर, उनके बीच इकहरी ईटो को जोडाई तथा सीमेट की लिगशास्त्र-सज्ञा पु० [२० लिङ्गशास्त्र] व्याकरण में लिंगविवेचन का ढलाईसे बनी रत आदि जितमे नीचे वरन आदि की माश्यकता प्रकरण । लिंगानुशासन कि०] । नही पडती को। लिगशोफ-उडा पुं० [ लिड शोफ ] शिस्नेंद्रिय का शोय या लिदु-वि० [सं० लिन्दु पिच्छिन । फिसलनवाली। जिनपर फिसलन नूजन कि०। हो [को०] । लिगन्ध-संज्ञा पुं० [अ० लिङ गस्य ] ब्रह्मचारी । ( मनुस्मृति ) । लिप-सज्ञा पुं० [सं० लिम] १ शिव का एक गण। २ लोपना। लिगाकित-सहा पु० [८० लिइ गाङ्कित ] एक शैव संप्रदाय । वि० लेप पता [को०] । 'लिगायत'। लिपट-वि० सडा पु० [ म० लिम्पट ] कामी । कामुक [को०)। लिगाल्य-सहा पुं० [ २० लिङ गात्य ] सात्य मतानुसार तृप्टि लिपाक-श पुं० [सं० लिम्माक ] १ एक प्रकार का नीबू । २. का एक उपभेद । खर । गदहा। लिगाम-सश दे॰ [ १० लिङ गाय ] शिश्नेद्रिय का अगला भाग । लिपि-सज्ञा ली [ ० लिमि ] दे० 'लिपि' कि । मरिण कि। लिफ-सहा पु० [मं० ] शीतला का रजा टीका लगाने के काम लिगानुशासन-उशा पुं० [३० लिङ्गानुशासन] लिगविवेचन शास्त्र । मे आता है। लिंगशन (व्याकरण)। लिए-हिंदी का एक कारक चिह्न जो प्रदान में आता है, और जिस शब्द के प्राो लगता है, उसके अयं या निमित्त किसी क्रिया लिगायत-वशा पुं० [ २० लिड गायत ] एक शैव प्रदाय जिनका प्रचार दक्षिण में बहुत है। का होना भूचित करता है। जंत, मैं तुम्हारे लिए ग्राम लाया हूँ। यह चिह्न शब्द के संबध कारक रूप 'का' के साथ विशेप-इस सप्रदाय के लोग शिव के अनन्य उपासक हैं और लगता है । जैसे,—उसके लिए। बहुत से लोग इसकी पुत्पत्ति सोने या चाँदी के सपुट मे शिवलिग रखकर वाहु या गले मे नस्कृत 'ते' ने बताते है, पर 'लग्न और 'लग्ग' शन्द से पहने रहते हैं । ये लोग 'जंगम' भी कहलाते हैं। इनके माचार इसका अधिक लाव जान पड़ता है। पुरानी वावमापा और संस्कार भी औरो से विलक्षण होते हैं। विशेषत प्रश्वी में 'ली' और 'लागे' रूप बराबर मिलते हैं लिगार्चन 1- ता पु० [सं० लिड गार्चन ] शिवलिंग का पूजन । यह प्राय 'लिये भी लिखा जाता है। लिगार्श-संज्ञा पु० [ स० लिड गार्शम् ] जननेंद्रिय का एक रोग। लिकिन - या पु० [स०] मटियाले रग को एक वडी चिड़िया जिनकी लिगालिका-सा सी० [ लिड गालिका ] एक प्रकार का छोटा टांगे हाय हार भर की और परदन एक दलिश्न की होती है। चूहा [को०] । लिकुच-सज्ञा पुं॰ [ स० ) बडहर का पेड । लकुत्र । चुक्र । लिंगिक - तशा पु० [सं० लिडेगक ] लंगडापन [को०] । लिक्खाड-सज्ञा पु० [हि लिखना { हिं० लिक्ख+ याड (प्रत्य०)}] लिंगिनी-सड़ा ही [ ० लिद गनी ] १ एक लता पंच बहुत लिखनेवाला। भारी लेतक । (व्यग्य या विनोद)। गुरिया कहते हैं और जो वैद्यक मे कटु उष्ण दुर्गवकाशक तथा लिक्विडेटर-सा पुं० [अ० ] वह अफसर जो क्तिी संपनी या फर्म रमायन कही गई है। २ धर्मवजी या पाडवर करनेवाली स्त्रो। का कारवार उठाने, उनकी भोर से मामला मुकदमा लडने या लिगी-वि० [सं० लिटि गन् ] १ चिहवाला। निशानवाला । २ दूसरे प्रावश्यक कार्य करने के लिये नियुक्त दिया जाता है। विसी चिह्न को धारण करने का अधिकारी (को०) । ३ जिसका लिकिडेशन-सन्ना पुं० [अ०] ममिनित पूंजी से चलनेवाली कपनी मन और काम नमान हो। विचार और कार्य मे एक सा या फर का कारवार वर कर उनका सपत्ति से लेहनदारो का (को०)। ४ चिहित । अकित (को०)। ५ सूक्ष्न शरीरी वा देना निपटाना और बचा हुई रकम को हिदारा में बांट लिंगदही (का०)। ६ बाहरी रूपरंग या वेश बनाकर काम देना । जैसे,—वह कंपनी लि कंडेशन में बनी गई। निकालनेवाला । आडवरी। धमबजी। क्रि० प्र०-जाना। लिगों - पुं० १ वगिलिगी। ब्रह्मचारी । २.शिवलिंग का पूजक । लिक्षा-मज्ञा लो. [१०] १ यूकाड । जू का पा । लीख । २ एक ३ दभी या छली व्यक्त । ४ हाधी। ५ कारण । मूना परिनारा जो कई प्रकार का कहा गया है, जो,-कहीं चार ६ परमात्मा । ७ एक शैव संप्रदाय [को॰] । प्रसुप्रा की दिक्षा कही गई है, कही आठ वाला की । ( लिगेंद्रिय - सझा पु० [सं० लिड गेन्द्रिय ] पुरुषो की मूत्रंद्रिय । परमाणु = रज । ८ रजबालार)। ६ लिदा का एक लिट-सहा पुं० [अ० ] तूतिए में रंगा हुआ मुलायम कपडा या मर्पप ( सरसो या राई ) माना गया है। फलालीन जो घाव मे मरहम लगाकर इसलिये भर दी जाती लिक्षिका-तज्ञा सी० [२०] लीख । जु (फो०] । २० -