पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/५६०

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जमे, ब्रह्म लोकर लोकना कल्पना हुई, जिनके नाम इस प्रकार हैं--भूनोंक, भुवर्लोक, लोककल्प'-वि० [स०] १ विश्व के अनुरूप । समार से मिलता स्वोंक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोक। फिर जुनता । २ विश्व के द्वारा मनित (को०] । पीछे इनके साथ सात पाताल -जिनके नाम अतल, नितल, लोककल्प' - पहा पुं० [सं०] विश्व को अवधि । विश्व की आयु (को०] वितल, गभस्तिमान, तल, सुतल और पाताल हैं और सब लोककात-वि० स० लोककान्त ] सर्वजनप्रिय । सबका प्रिय जिसे मिलाकर चौदह लोक किए गए। पुराणो मे पातालो के नाम सब चाहते हो [को०] । मे मतभेद है। पद्मपुराण मे इनके नाम अतल, वितल, सुनल, लोकमाता--सज्ञा स्त्री॰ [स० लोकवान्ता ] प्रौपद के काम प्रानेवाला तलातल, महातल, रमातल, और पाताल बतलाए गए है। अग्निपुराण मे अतल, सुतल, वितल, गभस्तिमान्, महातल, ऋद्धि नामक एक पौधा [को०] । रसातल और पाताल, तथा विष्णुपुराण मे प्रतल, वितल, लोककार सञ्ज्ञा पु० [सं०] शिव [को॰] । नितल, गभस्तिस्मान् , महातल, सुतल और पाताल इनके नाम लोककारण कारण-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०] । लिखे गए हैं। इस प्रकार चौदह लोक या भुवन माने गए है। लोकक्षिति-वि० [स० लोकक्षित् ] स्वर्ग लोक का निवासी। मुश्रुत मे लोक दो प्रकार का माना गया है-स्थावर और लोकगति-सज्ञा स्त्री० [स०] मनुष्यो के क्रियाकलाप [को०] । जगम। लोकगाथा-मशा स्त्री० [२०] परंपरा से जनसमाज मे चले आते २ गसार। जगत् । ३ स्थान। निवासस्थान । हुए गीत । लोकगीत जो जनभापा (बोलचाल की भापा) लोक, विष्णु लोक इत्यादि । ४ प्रदेश । विषय । दिशा । जैसे,- मे निबद्व हो किो०] । लोकपाल, लोकपति इत्यादि । ५ लोग। जन । उ०-मावव या लगि है जग जीजतु । जाते हरि सो प्रेम परातन बहुरि लोकचक्षु-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] सूर्य । नयो फरि कीजतु । कह रवि राहु भयो रिपुमति रचि विधि लोकचारित्र-सज्ञा पुं॰ [स०] ससार को चलन । लोक का चरित्र वा मजोग बनायो । उहि उपकारि प्राजु यह प्रोसर हरि दर्शन प्राचार आदि । लोकाचार [को०] । सचु पायो। कहाँ वसहिं यदुनाथ सिंधु तट कह हम गोकुल लोकजननी-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी । लोकमाता। वासी । वह वियोग यह मिलनि कहाँ अव काल चाल प्रौरासी । लोकजित्-मक्षा पु० [सं०] १ बुद्ध । २ एक सत का नाम (को०)। सूरदास मुनि चरण चरचि करि सुर लोकनि रुचि मानी । वह जिसने ससार को जीत लिया हो। तब अरु अव यह दुसह प्रमानी निमिषो पीरि न जानी। लोकज्येष्ठ-स्ना पु० [म०] बुद्ध । मूर (शब्द०)। ६ समाज । मानव जाति । उ० --(क) सब लोस्टोgi-मज्ञा स्त्री॰ [हिं०] लोमडी। से परम मनोहर गोपी। नंद नदन के नेह मेह जिन लोक लीक लोपी ।--मूर (शब्द॰) । (ख) सो जानव सतमग प्रभाक। लोकतन्त्र सज्ञा पुं० [सं० तोक + तन्त्र] १. ससार का मार्ग या चलन । २ जनता का, जनता के लिये, जनता के द्वारा चलाया जाने- लोह वेद न पान उपाऊ।—तुलसी (शब्द०)। ७ प्राणी । उ.---उगेहु अरुन अवलोकहु ताता । पकज लोक कोक सुखदाता। —तुलसी (शब्द०)। • यश । कौति । उ०-लोक मे लोक लोकतुपार-सशा पु० म०] कपूर । बडो अपलोक मुकेशव दास जो होउ सो होऊ |- केशव लोस्चय-सशा पु० [सं०] तीनो लोको को समष्टि । त्रिलोक (को०] । (शब्द०)। ६ दृश्य या देखने योग्य वस्तु (को०) । १० प्रकाश लोकद भक - वि० [ सं० लोकदम्भक ] ससार को या सबको धोखा (को०) । ११ ७ या १४ की सख्या। १२ अपना या निज का देनेवाला (को०)। स्वरूप (को०)। १३. फज (को०)। १४ भोग्य वस्तु (को०)। लोकद्वार-सज्ञा पुं॰ [ स० ] स्वर्ग का द्वार [को०] । १५ चक्षुरिंद्रिय । देखने की इद्रिय । नेत्र (को॰) । लोकधर्म-सशा पुं० [ स०] १ सासारिक विपय । २ बौद्ध मता- लोक- सज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का पक्षी जो वत्तख से बडा नुसार ससार की अवस्था [को०] । और खाकी रग का होता है। लोकधाता- सज्ञा पु० [सं० लोकवात ] शिव [को०] । लोककटक-सञ्ज्ञा पुं० [स० लोफकण्टक ] वह जो समाज का कटक, लोकधातु-शा पुं० [ ] जवुद्वीप का एक नाम को०] । विरोधी या हानिकर हो। लोगो को कष्ट या हानि पहुंचाने- लोकधारिणा-सज्ञा स्त्री॰ [ म० ] पृथ्वी। वाला । दुष्ट प्राणी। लोकधुनि-सच्चा स्त्री० [सं० लोकध्वनि] जनरव । अफवाह । उ०- लोककथा-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] परपरा से जनसामान्य मे प्रचलित चरचा चरनि सो चरची जानि मन रघुराइ। दूत मुख सुनि कथाएं किो०] । लोकधुनि घर घरनि बूझो जाइ । —तुलसी (शब्द॰) । लोककर्ता - सज्ञा पुं० सं० लोककर्तृ] १ विश्व का निर्माता । ब्रह्मा । लोकन-सम्मा ० [ स०] अवलोकन । देखना (को०) । २ विष्णु । ३ शिव (को०] । लोकना-क्रि० स० स० लोपन ] १ ऊपर से गिरती हुई किमी वस्तु ८-६९ वाला शासन । HO [