पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/५५९

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नेवार । 20 लली ४३१८ लोकल लो--० [अ० दे० 'लना'। लोइन लोइन सिंधु तन, पैरि न पावत पार लल्लूलाल चंटर-7 पुं० [१०] एक मुगधिन तरल पदार्थ जो एक पौधे (गन्द०)। पूने निता जाता है और जो इतर की भांति कपडो लोइन'- '-सज्ञा पुं० [सं० लोचन, प्रा. लोयण, लोइण ] दे० 'लोयन' । में, या टक पट्टेवान के लिये मिर मे लगाया जाता है। उ०- इनमे कै दरमात है हर मूरत की लोइ । या ते लोइन लसमग पुं० [अ० लादम ] वह प्रमाणपत्र जिसके द्वारा किसी कहत है इन मी मिल सब कोइ ।-स० सप्तक, पृ० १६३ । 'नुष्य को विशेष अधिकार प्रदान किया जाता है । सनद । लोई'- '-सज्ञा स्त्री॰ [ स० लोती = प्रा० लोबी ] गुघे हुए आटे का उतना घ पराग्य। जैने,-प्रफीम बेचने का सस, एक्का या गाडी अश जो एक रोटी मात्र के लिये निकालकर गोली के अाफार का होपन या पम, बदूक रखने का सम । वनाया जाता है और जिसे वेलकर रोटी बनाते है । उ०- लग-० [१० मदी पौर ह पयागे ने मजा हुमा । कटिबद्ध । भाजी भावती है महा मोदक मही की शोभा पूरी रची है कर लोनाई विधि लोई मे।-रघुनाथ (शब्द०)। जिप्र०-होना। लोई २-सज्ञा स्रो० [ स० लोमीय (= लोई)] एक प्रकार का कवल जो लग-युगपरे पर पटाने का फीता । पतले ऊन से बुना जाता है और केबल से कुछ अधिक लंबा लस और चौडा होता है । इसकी वुनावट प्राय दुसुत्ती को सी होती -सरा पु० एक प्रकार का बाण जिमकी नोक लवी और बडी है। उ०-सीतलपाटी टाट, लोई कम्बल कन के। वची न एको होती है । उ०-पिहूं लैम कती धरत्ती घुमाई। किहूँ सैल की न हत्यो चलाई।-मूदन (शब्द०)। हाट, खेस निवारहि आदिहै । -सूदन (शब्द०)। -सञ्ज्ञा पु० [ सं० लोक ] लोग । दे० 'लोइ' । उ०—(क) नागर लग '- TT पुं० [हिं० लेस] १ एक प्रकार का मिरका । २ कमानी। नवल कुंग्रार वर सुदर मारग जात लेत मन गोई । —सूर नम'- पुं० [ ] गेर । सिंह । (शब्द)। (ख) सूरश्याम मनहरण मनोहर गोकुल वसि मोहे लौ-प्रय० [हिं० लग ] दे० 'लों'। सब लोई।-सूर (शब्द॰) । (ग) वल बमदेव कुशल सब लोई । र्लोटी-मसा ० [सं० लेला ] कान का लोलक । अर्जुन यह सुन दीने रोई । —सूर (शब्द०)। लौदा-सहा पुं० [ म० लुण्ठन ] किसी गोले पदार्थ का वह अश जो लोकतन-सञ्ज्ञा पुं० [ स० लोपाजन या हिं० लुकना + अजन ] वह इले की तरह बंधा हो । जैसे -धो का लोदा, दही का लोदा, कल्पित अजन जिसे यास्त्र मे लगाने से मनुष्य का अदृश्य होना मिट्टी का नोदा। माना जाता है । लोपाजन । उ०-जो कहिए विधना ही रची लो-ग्रव्य [हिं० लेना ] एक अव्यय जिसका प्रयोग श्रोता को सिख तें घर क्यो पग को सँग लीन्हो । जो कहिए कि विरचि गोधन करके उसका ध्यान अपनी ओर प्रापृष्ट करने एव रची है तो दखी न जाति किती दृग दीन्हा । कीन्हे विचार न पाश्चर्य व्यक्त करने मे किया जाता है। जैसे,—(क) लो । प्रा मन नृप मभु भनै तब मो मति चीन्हो। जो चितचोर को साली बैठे देग तुम्हे कैसी पर निखाने की सूझी। (ख) लो। चित्त चुगवत राधे के लक लोक जन कोन्हो।-शभु (शब्द॰) । चलो में जाता है । (ग) लो । देखने जाग्रो, यह क्या कर रहा लोकदो-सा पु० [हिं० लोकना ?] | मी० लोकदी ] विवाह मे है । (घ) लो । क्या ने क्या हो गया। कन्या के डोले के माय दासी को भेजना। उ० - चेरी बाघहि लोअर-वि० [अ० ] नीचे का । निम्न [को०] । व्याह होत है मगल गावे गाई। बन के रोझ धौ दायज दीन्हो लोअर कार्ट-7 पुं० [अ० ] नीचे को अदालत । निम्न विचारा गोह लोक्दे जाई । - कबीर (शब्द॰) । लय। मातहत पदानत । क्रि० प्र०-जाना। - भेजना। लोइ'-मा पुं० [सं० लोक, प्रा० लोपो या लोयो ] लोग। लोकदी-ना सी० [हिं. लोकना ? ] वह दासी जो कन्या 30-4) देघि बिनु करतूति कहियो जानिहै लघु लोइ । कही के पहले पहल गसुराल जाते समय उसके साथ जो मुन की ममर नरि यालि कारिस धोइ ।- तुलमी (नन्द०) लोड-सज्ञा पी० [म रोचि, प्रा० नोई ] १ प्रभा । सौंदर्य । दीप्ति । लोकल'-सक्षा पुं० [सं०] १ स्थानविशेष जिमका बोय प्राणी को हो । उ०-() इनमे होर दरमात है हर मूरत की लोइ । या तें विशेष-उपनिपदो मे दो लोक माने गए हैं-इहलाक और लोइन कहत हैं इनमा मिलि मन कोइ ।-रमनिधि (शब्द॰) । परलोक । निरक्त में तीन लोको का उल्लेस मिलता है- (स) कम ऐसे रूप की गर तें उतपति होइ । भूतल से निकसति पृथ्वी, अतारेक्ष और द्युलाफ। इनका दूसरा नाम 'भू', नही विन्नु छटा का लोइ ।-लदमरण (शब्द०)। २ लव । 'भुवः' और 'स्व' है। ये महाव्याहृत कहलाते हैं। इन शिमा । उ०-इधन के टारे बिना बढति न पावक लोइ । तीन महाव्याहृतियो की भौति चार और 'मह', 'जन', फन न उगवत नागहू जो रोड्यो नहिं होइ । - लदमण (शब्द॰) । 'तप' और 'सत्यम्' गन्द हैं, जो तीनो महाव्यातियो लोहन'-सरा पुं० म० लादण्य ] लावण्य । नमक । सौंदर्य । के गाथ मिलकर मप्तव्याहृति कहलाते हैं। इन सातो महा- नमीनी। उ०-तीने हू साहस सहम, कोने जतन हजार । व्याहृतियों के नाम से पाराणिक काल में सात लोका की भेजी जाती है।