पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/५६४

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लोचनपथ ४३२३ लोटना मा की कोर को०] । सोइ अावा । बहुरि कि अस प्रभु बनिहि बनाया ।—मानस, लोचिका-मझा स्त्री॰ [ सं०] दही, घी तथा गरम जल से गुंधे हुए पृ० १०॥ आटे की घी मे छानी गई महीन पूरी [को०] । लोचनपथ-सज्ञा पुं॰ [सं०] दे० 'लोचनगोचर' [को०] । लोचून-मक्षा पुं० [ स० लोहचूर्ण ] । १ लोहे का चूरा । २ लोहे की कीट का चूर्ण । लोचनपरुष-वि० [ ] कठोर या शुष्क दृष्टिवाला । क्रोधपूर्ण नेत्रो- वाला (को०)। लोजग--सञ्ज्ञा स्त्री० [रश० लोहा + जग ? ] एक प्रकार की नाव लोचनमगा-ज्ञा पुं॰ [ म० लोचन + स० मार्ग, प्रा० मग्ग ] जिसके दोनो ओर के सिक्के लवे होते है । नेत्रमार्ग। उ०-लोचनमग रामहि उर पानी, दीन्हे पलक लोटर-सज्ञा स्त्री० हिं० लोटना ] लोटने का भाववाचक रूप । लोटने कपाट सयानी । —मानस, १२२३२ । की क्रिया या भाव । लुढकना । लोचनमार्ग-स -सज्ञा पुं० [ ० ] दे॰ 'लोचनपथ' [को०] । क्रि० प्र०~-लगाना। लोचनमालक-सञ्ज्ञा पुं० [ स० ] आधी रात के पहले का सपना । मुहा०--लोट मारना = (१) लेटना। सोना । (२) किसी के प्रेम पूर्व निशा का स्वप्न [को०] । मे वेध होना । लोट होना या हो जाना = (१) प्रासक्त होना । लोचनहिता-मज्ञा पुं० [सं०] तुत्याजन । नीला थोथा । शिखि- रीझना । (२) व्याकुल होना । ग्रीव [को०] । लोट'--मज्ञा पुं० [हिं० लोटना ] १ उतार । घाट । उ.--चारो तरफ पुख्ता लोट वने । नल्लू ( शब्द०)। २ त्रिवली। लोचनाचल-सञ्ज्ञा पुं० [ स० लोचनाञ्चल ] अपाग । फटाक्ष । आँखो उ०--(क) नार नवाए तकि हुरी करो काँकरी चाट। चौकि कंपी झझको चकी चंपी हंपी गहि लोट । -- गार० लोचना-क्रि० स० [हिं० लोचन ] १ प्रकाशित करना । २ रुच ( शब्द० ) । (ख) बढति निक स कुच कार काच कढत गौर उत्पन्न करना । उ०-निसि वासर लोचन रहत अपनो मन भुन मूल । मन लुटिगो लाटन चढन चूंटति ऊंचे फूल ।- अभिराम । या ते पायो रसिक निधि इन नै लोचन नाम ।- विहरी ( शब्द०)। रसनिधि । शब्द०)। ३. अभिलाषा करना। उ०-स्वर्ग मे लोट-सञ्ज्ञा पुं० [अ० नोट ] कागज की मुद्रा । नोट । देवगण भी लोचते हैं और इस बात के लिये तरसते हैं कि भारत की कर्मभूमि मे किसी तरह एक बार हमारा जन्म लोटन'-सज्ञा पु० [सं०] लुढ़कना । लुठन [को॰] । लाटन-सज्ञा पुं० [हिं० लोटना ] १. एक प्रकार का हल जिसकी होता । - हिंदी प्रदीप ( शब्द०)। जोताई बहुत गहरी नही हाती। २ एक प्रकार का कबूतर लोचना-कि० अ० शोभित होना । उ०-लोचे परी सियरी पर्यंक जो चोच पकडकर भूमि मे लुढका देने से लोटने लगता है, प बीती घरीन खरी खरी सोचे । -पद्माकर (शब्द)। और जबतक उठाया न जाय, लोटता रहता है। ३ राह मे लोचना-क्रि० प्र० १ अभिलाषा करना। कामना करना । उ० - की पड़ी हुई छाटी व कडिया जो वायु चलने से इधर उधर (क) कहति है सकोचति है सखी को बोलाइबे को लोचति है लुढकती रहती है। उ०-काट कुराय लपेटन लोटान ठावहि भटू बैठी सोचति है मन तें।-रघुनाथ (शब्द॰) । (ख) ठाव बझाऊ रे। जस जस चलिए दूरि तस तप निज वासना कुंअरि सयानि विलोकि मातु पितु सो कहि । गिरिजा जोग भेंट लगाऊ रे । —तुलसी (शब्द०)। जुरहिं बर अनुदिन लोचहिं । –तुलमी (शब्द०)। २ ललचना । तरसना । उ०-अब तिनके बधन मोहिंगे । दास लोटनसज्जी-पञ्ज्ञा स्त्री॰ [ देश० लोटन + सज्जो ] एक प्रकार की सज्जी जो सफेद और गुलाबी रंग की होती है। यह प्राय. बिना पुनि हम लोचहिंगे।-सूर (शब्द॰) । मुरब्बे आदि के गलाने मे काम आती है। लोचना -सञ्ज्ञा पुं॰ [स० लुञ्चन ] नाई । हज्जाम (क्व०) । लोचान'-सज्ञा स्त्री० [सं० ] बुद्ध की एक शक्ति का नाम । लोके- लोटना-क्रि० भ० [ स० लुण्ठन ] १ भूमि पर या किसी ऐसे ही श्वरात्मजा को०)। आधार के सहारे, उसे सश करते हुए, कार नाचे हाते हुए किसी का एक स्थान से दूसरे स्थान को पार जाना या गमन लोचना --सचा पुं० [स० रोचन(= रोली, हरिद्रा)1 १ कन्या के सतान करना। सीवे और उलटे लेटते हुए किपा पोर को जाना। होने पर कन्या के पितृगृह से भेजा जानेवाला मागलिक उ०—(क) परो कथा भुइ लोट कह रे जीव वितु भीव । उपहार । २ वहू के सतानवती होने पर उसके पिता तथा को उठाय बैठार वाज पयारे जीव ।—जायसी (शब्द०)। अन्य सगे सवाधया के यहाँ भेजा जानवाला शुभ सदेश । (ख) काम नारि अति लाटत ।फर । कत कत काह घात भुज लोचनापात- सज्ञा पुं० [सं० ] दृष्टिनिक्षेप (को०] । भर । -लल्लू (शब्द०)। २ लुढ़कना । उ०-जानहु लाटॉहै लोचनामय-सञ्ज्ञा पुं० [सं० ] नेत्ररोग [को॰] । चढ़े भुप्रगा। वेवी बार मलय (गार अगा।-जायसी (शब्द०) लोचनी-सज्ञा स्त्री० [सं० ] एक प्रौपध । महाश्रावणिका [को०) । ३. कष्ट से करवट बदलना। तडपना । लोचमस्तक-सञ्चा पुं० [स०] मयूरशिखा । रुद्रजटा नाम का क्षुप (को०] । क्रि० प्र०-जाना । लोचारक-सञ्ज्ञा पुं० [स० ] पुराणानुसार एक नरक का नाम । मुहा०-लोट जाना = (१) वेसुध होना । वेहोश हो जाना ।