पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/६६

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मष्णार ३५२५ मसकरी 30- उ० महा०-मष्ट करना = चुप रहना । मुह न खोलना । ( क ) वोलत लखनहिं जनक डेराही । मष्ट करहु अनुचित भल नाही ।- तुलसी (शब्द०)। (ख) बूझेसि सचिव उचित मत कहहू । ते सब हमे मष्ट करि रहहू ।-तुलसी (शब्द०)। (ग) स्याम तन देखि री मापु तन देखिए । भीति जी हाइ तो चित्र अवरेखिए। कहाँ मेरे कान्ह की तनक सी आँगुरी वडे बडे नखनि के चिन्ह तेरै । मष्ट हंसँगे लोग, अकवार भरि भुजा पाई कहाँ श्याम मेरे ।- मूर०, १०३०७ । मष्ट धारना = मौन धारण करना । चुप्पी साधना। मुन्यो वसुदेव दोउ नदमुवन आए। त्रिया सौ कहत कछु सुनत है री नारि, रातिहू सपन कछु ऐसे पाए । गए अक्र र तेाह नृपति मांगे बोलि, तुरत पाए प्राइ कस मारे । कहा पिय कहत, सुनिह वात पौरिया, जाय कहिहै रहो मष्ट धारे ।-सुर०, १०१३०८६ । मष्ट मारना = मौन धारण करना । चुपचाप रहना । उ०-एक दिन वह रात्रि समय स्त्री के पास सेज पर तन छीन मन मलीन मष्ट मारे बैठा मन ही मन कुछ विचार करता था । - लल्लू ( शब्द०)। मष्णार -सञ्ज्ञा पु० [स० ] ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार एक प्राचीन स्थान का नाम । मष्परी-वि० [ स० मत्सर या अमर्ष, हिं० माखना ] मत्सरवाला । क्रोधयुक्त । उ०-गजन पति ढुलि ढाल तत्त तोपार पप्परिय । जत्र गोर गहरान मिलत मेछान मष्परिय। -पृ० रा०, ३३ । २६ । मसंदर-सञ्ज्ञा सी० [अ० मसनद, हिं० मसनद ] दे० 'मसनद' । उ०-हम्मीर राव राजत मसद । दुई प्रोर चौर ढोर अमद । -ह. रासो, पृ० १११॥ मसg+-सज्ञा स्त्री० [ मं० मसि ] स्याही । रोशनाई। उ०-सात स्वर्ग को कागद करई। धरती समुद दुई मस भरई।—जायसी ( शब्द०)। मस'-सज्ञा पुं० [सं० मशक ] मच्छड । मशक | उ०-दादुर काकोदर दसन परे मसन मात ध्याउ |-दीन० ग्र०, पृ० २०६। यौ०-मसहरी = द० 'मशहरी' । मस'- सञ्चा स्त्री॰ [ स० श्मश्रु ] मोछ निकलने से पहले उसके स्थान पर की रोमावली । उ०-उनके भी उगती मसो से रस का टपका पडना और अपनी परछाई से अकडना इत्यादि । - शिवप्रमाद (शब्द. ) मुहा०- मस भींजना = मूछो का निकलना प्रारभ होना। मूछो की रेखा दिखाई पड़ने लगना । उ०-उठत बैस मस भीजत सलोने सुठि सोभा देखबया विनु वित्त ही विकैहैं ।- (शब्द०)। मस-सज्ञा पु० [हिं० ] दे० 'मसा' । मस"-सज्ञा पुं॰ [ स० ] माप । तौल (को०] । मस-सज्ञा पुं० [अ०] १ चूसना । चूषण । २. छूना। ३. पसद । रुचि (को०] । मसक --सञ्ज्ञा पु० [सं० मशक ] मसा | मच्छड । डाँस । उ०- मसक समान रूप कपि परी। लकहि चलेउ सुमिरि मन हरी । —तुलसी (शब्द०)। मसक' - सज्ञा स्त्री० [फा० मशक ] दे० 'मशक' । उ०-छूछी मसक पवन पानी ज्या तैसेई जन्म बिकारी हो।-सूर (शब्द०)। मसक'-सज्ञा स्त्री॰ [ अनु० ] मसकने की क्रिया या भाव । मसक – सञ्चा पु० [हिं० मसक ] एक प्रकार का बाजा। मशकवीन । उ०- भाँझ मजीरे मसक समय प्रनुमार ।- प्रेमघन०, भा० १, पृ०७८ । मसकची-सज्ञा पुं० [फा० मश: + तु० चा (प्रत्य॰)] भिश्ती । मसकवाला । उ०-उस समय बादशाह का गुलाम एक मसकचो था ।-हुमायू०, पृ०६६ । मसकतन-मज्ञा स्त्री० [अ० मशक्कत ] दे० 'मशक्कत'। उ०- तुम कब मो सो पतित उधारचा । काहे को प्रभु विरद बुलावत बिन मसकत को तारयो।- सूर (शब्द॰) । मसकन--सशा पुं० [अ० मस्कन ] निवासस्थान । घर। मकान । उ०-मुवारक शहर मगरिब ये मसकन । वलियाँ मे सब अर्थ अफजल हर यक मन । -दक्खिनी०, पृ० ११५ । मसकना-क्रि० स० [अनु०] १ खिंचाव या दवाव मे डालकर कपडे को इस प्रकार फाडना कि बुनावट के सब ततु टूटकर अलग हो जाएं। २ किसी चीज को इस प्रकार दवाना कि वह बीच मे से फट जाय या उसमे दरार पड जाय । महावली वालि को दवतु दलकत भूमि तुलसी उछरि सिंधु मेरु मसकतु है ।-तुलसा (शब्द०)। ३. जोर से दबाना । जोर से मलना। उ०--सो सुख भापि सकै अव को रिस के कसक मसकै उतिया छिये । राति की जागी प्रभात उठी अंग- रात जम्हात लजात लगी हिये ।-पनाकर (०, पृ० १७१) । १४. वैलो को बलपूर्वक हाँकना। दोडाना । भगाना। उ०- गाटी वारे मकि द वैल अब पुरवैया के बादर श्राए। -शक्ल अभि० ग्र०, पृ० १५६ । सयो० क्रि०-ढालना ।—देना । मसकना-क्रि० स० किसी पदार्थ का दबाव या खिंचाव प्रादि के कारण बीच मे से फट जाना। जैसे,-कपडा मसक गया, दीवार मसक गई। सयो० कि०-जाना। २.(चित्त का ) चितित हाना। दुख के कारण सना । उ०- राजकुमार धोरे से उसी स्थान पर बैठ गए। पूर्वकालीन वातें स्मरण हाने लगी और कलेजा मसकने लगा।-गदावरसिंह (शब्द०)। मसफरा-सज्ञा पु० [अ० मसखरा ] दे० 'मसखरा' । उ०—(क) जूझगे तब कहंगे अब क्या कहे बनाय । भीर पर मन मसकरा लकियों भगि जाय । —कबीर (शब्द०)। (ख) दादू यहु मन मसकरा, जिनि काई पतियाइ ।-दादू०, पृ० २०६ । मसकरी-सज्ञा स्त्री० हिं० मसखरी ] दे० 'मसखरी'। उक- उ०-