पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१८९

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मोर औला ग्रो--संज्ञा पुं० दिन०] एक प्रकार के वहुत लंबा वास जो अासाम भोलक --संज्ञा पु० [हिं० लिट] प्राड़े। ग्रोट । उ०—-देखते | और ब्रह्मा (वर्मा) में होता हैं । रूप अनूप वह बेत दृगन द ग जोत । फिर कैसे वह विरो विशैप-इहां यह घर तथा छकड़े बनाने के काम में आता है । ग्राखिन लक होत ।-सु० सप्तक, पृ० ३५४। । इनसे छाने के इई भी बनते हैं। इसकी ऊँचाई १२० फुट तक अलग--वि० स० अपलन, अप०, लग्ग, राज०, ओलगो, हि० की होती है और वे २५-३० इच। अलग] दूर। पृथक् । यलग । उ०—अतिम तुझ पसिइ अथई, शोलदेज---संज्ञा पुं० [० लाँदज, अ० हालैड [वि० ओलदेजी। होलग डर रख ।---ङोला ० दू०, ११४। | हाले देश का निवासी व्यक्ति ! लगना--क्रि० प्र० [सं० अपलग्न, अपं० शोल] अलग ग्रौलदेजी-वि० [फ्र० औलदैज] हालैंड देश सवधी । हालैंड देश होना । दूर होना ! प्रस्थान करना। उ०-ढाडी रात्यू अलग्या का । ३०.---ईगनिम्तानी को दरियानी कच्छी लदैजी । | गाया व देहू भते !-डोला० १० १८६ ।। और विविध जाति के दार्ज नकत पवन की तेजी |-- झोलग:--वि० [अप० ओलग्रा] दे॰ 'अलग' । उ०—रहि रहि राव रघुराज (शब्द॰) । लगी तू जाई, माइ गइली तु करह पठाई -वी० रासो, प्रोन्ना –सन्ना पु० [सं० उपालम्भ] ६० 'लं भा' । ३०--सों। पृ० २६ । । ना। लाख करश इचत ना जाना । औलचा--सच्चा पु० [सं० उलुचना] १ खेत का पानी उलीचने का रामानुज को दियो ग्रोल वा । कीन्ह्यौ का धर्म अवलंवा -- चम्मच के प्रकार की काठ को वरतन | हाथ । २ दौरी रघुराज (शब्द०) । जिससे किसी ताल का पानी ऊपर खेत में ले जाते हैं । झोलभा-संज्ञा पुं० [सं० उपालम्भ प्रा० उवालभ] उलाहना ।। औलची-सच्चा स्त्री॰ [स० अलि अलि वान्नू नाम का फन । गिलास । शिकायत । गिला । ३०० -सच है बुद्धिमान मनुष्य जो करना ओली - सज्ञा स्त्री॰ [देशज] १ ढलु छप्पर का वह भाग जहाँ होता है वहीं करता है परतु अौर का ग्रोलमा मिटाने के लिये से वप का पानी नीचे गिरता है। उ० -नित सावन उनके सिर मुफ्त का छप्पर जल वर देता है ।-श्रीनिवास ग्र०, पृ॰ २६६ । डीठि मुवैठक में टपक वन तिहि झोलतियाँ ---घनानंद, पृ० ८८ । अल-सुया यु० सं०] सूरन । जिमीकंद । मुह।०--ोलती तले की भूत = घर का भेदिया । निकटवर्ती व्यक्ति ल-वि० [अ० अर्द, प्रा० उल्ल] गोला | योदा । जो घर का सारा भेद जानता हो । ग्रोल-सा भी[१० कोड] १ गोद । २ ग्रह १ र । ३ शरण ।। पनाह । उ०-जाकै मत नदनदन से कि लइ पीत पटोले । ग्रौलुना–क्रि० स० [हिं० लाड] १ पूरा करना । श्रोट ” सूरदास ताका डर काफी हरि गिरिधर के प्रोलै ।--सूर० में देना । उ॰—लोल अमोल कटाक्ष कनोल अलौकिक सौ पट १२५६ । ४ किसी वस्तु या प्राणी का किसी दूसरे के पास ओलि के फेरे–केशव ग्र ०, मा० १, पृ० ७३ । २ अडेना। जमानत में उस मुमय तक के लिये रहना जब तक उस दूसरे रोकना । ३ ऊपर लेना ! सहना । उ०--केसीदास कौन बड़ी व्यक्ति को कुछ रुपया न दिया जाये या उसकी कोई शर्त न रूप कुलकानि १ अनोखो एक तेरे ही अनूप उर अलिये ।-- पूरी की जाय । उ०--दीपू ने अपने दोनों लड़को को प्रोल केशव 7 ०, मा० १, पृ० ७९ ।। में लाई कार्नवालिस के पास भेज दिया ।- शिवप्रसाद (शब्द०)ोलना-क्रि० स० [सं० शूल, हि० फूल] चुगानी । चुभोना । क्रि० प्र० • देना। में देना ।—में लेना ! उ०- ऐसी हूँ है इन पुनि अपने कटाछ मृगमद बनसार मर्म ५ वह वस्तु या व्यक्ति जो दूसरे के पास जमानत में उस समय मेरे उर अोलिहै ।--केशव ग्र०, भा० १, पृ० ४६ । तक रहे जत्रे तक उसका मालिक या उसके घर के प्राणी ग्रोलमना- क्रि० अ० [हिं०] दे० 'अरमना' या 'उलमना' । उम दूसरे अदमी को कुछ रुपया न दे या उसकी कोई शर्त प्रोलरना----क्रि० अ० [हिं०] ३० ‘उलरना'। पूरी न करे --(क) वाजे बाजे राजनि के बेटा बेटी | अलराना--क्रि० स० [हिं०] दे॰ 'उलारना' । । मौन हैं 1--चुली ग्र०, पृ० १७६ । (ख) रजिहि चली छडावे लहना--सबा ५० [हिं०] 'उलाहना' । हैं रानी होइ अोल ---जायसी ग्रे ०, पृ० २८७ । (ग) बने ओला-सबा पु० [सं० उपल] गिरते हुए भैह के जमे हुए गोले । विभाल ग्रवि लोचन सोल । चिर्त चित हरि चारु विलोकन मान माँगत हैं मन अन्न (~-भूर०, १०६३० । पत्यर। बिनौली। इद्रोपन । उ०-- ना कही, ग्रोले की, क्रि० प्र०——देना । उ०—एक ही औल ६ जाहु घली झग लगता कहीं कुछ रोग है !--भारत०, पृ० ६४।। नगरो मिटि बात परै सुन ---घनानद, पृ० ।लेना ३०--- विशेप-इन गोलों के बीच में दर्फ की कई गुठली सी होती तोप रहकन मान न ग्रोले निधाया ।—मुदन (शब्द) । है जिके ऊपर मुलायम बर्फ की तह होती है। पत्थर कई ६ बहना । मिस । उ०-वैठी बहू गुरु लोगन में लखि लाल गए आकार के गिरते हैं। परपर पड़ने का समये प्राय शिशिर करि के फछु अोलो -देव (शब्द०)। ७ कोना। उ०- और वसत है । घर में धरे सुमेरु से अजहू खानी प्रोन - सुदर ग्र०, 'भा० १, क्रि० प्र०—गिरना ।—पना । उ०—डईट वढने नेगी, पृ० ११६ । ओला पड़ने की संभावना यो ।-धी, पृ० ११८ ।।