पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/५८

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प्रबंधू उरसंग ५७२ दाम (पब्दि०)। 'प्रसिद्ध पिया' जैसे, नौ कटि समता नहन उत्प्रबध–वि० [स० उत्प्रवन्ध] १ निरतर । अनवरत । अविराम ' को॰] । मनु सिह करत वन वाम ( शब्द०)। () गग्योत्प्रेक्षा उत्प्रम-वि० [सं०] १ मा से भरा हुअा। प्रभापूर्ण । प्रकाश फैलाने- जिममें उत्प्रेक्षावावफ प्राब्द न रखकर उत्प्रेक्षा की जय । | वाला [को॰] । जैसे, तोरि तीर तक के सुमन वर मुगध के मोन, यमुना उत्प्रभ-सज्ञा पु० बडी तीव्र अाग । तेन याग । दहकता हुअा अंगारा तव पूजन करत वृदावन के पौन (ब्द॰) । (५) सापद्म व- [को०] । त्प्रेक्षा' जिसमे अपतुति महित उत्प्रे की जाय। यह भी उत्प्रसव—सज्ञा पुं० [सं०] गर्भ गिराना । गर्मपात होना [को०) । वस्तु, हेतु प्रौर फत्र के विचार से तीन प्रकार की होती है- उत्प्रास—मज्ञा पुं॰ [सं०] १ लडखडाना । लुढ़कना । २ फेंकना । ३ ( क ) साह्नव वरतूत्प्रेक्ष' जैम, तैमी चाल चाहने चलति हास विनोद । हँसी मजाक। ४ अट्टहास । ५ तीक्ष्ण वचन । उत साहुन मौं, जैसो विधि हुन विराजत विजे। है । वैसा कटुवचन । व्यग्यवचन । ६ अाधिक्य (को॰] । भृकुटी को ठाट तैसो ही दि ल ट वैग ही विलोकित्र को उत्प्रासन- सज्ञा पुं० [स] दे॰ 'उत्प्राम' [को०)। पीको प्रान पैठा है। तैमिये तनताई नीलक आई उर उत्प्रेक्षक-वि० [सं०] उत्प्रेक्षा करनेवाला । अनुमान करनेवाला। शैशव भहाई तासो कि ठो ऐठो है । नानी लट माल पर समझनेवा। विचार करनेवाला (को॰) । उत्प्रेक्षा-सच्चा स्त्री० [सं०] [वि० उत्प्रेक्ष्य] १ उर्दू भावना । आरोप। छुटे गोरे गाल पर माना पाT पर व्याल ऐ बों है। २ एक ग्रथलकार जिसमे भेद-ज्ञान-पूर्वक उपमेय में उपमान ( शब्० )। यही रवणं कपोल पर छूटी हुई अलका का की प्रतीति होती है। जैसे, मुख मानो चंद्रमा है। मानो, जानो, । निषेध करके रूप माना पर स के बैठने की स भावना की नई मनु, जनु, इव, मेरी जान, इत्यादि शब्द इस अलकार के है । अत ‘सापनय ववृत्ते.' है । (ख) मापनेव हेतूप्रे।' वाचक हैं। पर कही ये शब्द लुप्न भी रहते हैं जैसे जैसे फन के मर्ग में रेत गग इगमगे मान सुकुमाता की गम्योत्प्रेक्षा में। वैलि विधि वई है। गोरे गरे पॅन ले मन पो हो कि नीकी विशेष—इस अलकीर के पाँच भेद हैं--(१) बस्तुरप्रेक्षा, (२) मुख अप पुर्ण छपेश पि ई है । उन्नत उरोज नितचे। हेतुत्प्रेक्षा, ( ३ ) फलोत्प्रेक्षा, ( ४ ) गम्योत्प्रेक्षा अौर ( ५ ) मीर श्रीपति जू टूटि जिन पर लक ज्ञा चिल गई है। नाते सापह्नवोत्प्रेक्षा । (१) वस्तुत्प्रेक्षा में एक वस्तु दूसरी वस्तु के रोम माल मिम मारग छ। ६ विवली की डोरि गाठि काम तुल्य जान पड़ती है । इसको स्वरूपोत्प्रेक्षा भी कहते हैं । इसके वागवान दई है (शब्द॰) । यहाँ 'मि' शब्द के कयन नै के नवा दो भेद हैं-'उक्तविपया' और 'अनुक्तविषया'। जिसमे उत्प्रेक्षा नुति से मिली हुई हेतुत्प्रेक्षा है, क्योंकि विवली प रस्सी का विपय कह दिया जाय वह उक्तविपया है । जैसे, सोहत बाँधत कुच ग्रौर नितई भार से कटि न टूट पड़े इम अहेतु को प्रौढ़ पीतु पटु स्याम, सलोने गात, मनो नीलमनि सैल पर यात हेतु भाव से कथन किया गया है । (ग) 'ना नव फलोत्प्रेक्षा पर प्रभात |--- विहारी र०, दो० ६८६ यहाँ 'प्रपामतनु, जैसे, कमलन को तिहि मित्र लखि मानहू हृतवे काज, प्रविशहि जो उत्प्रेक्षा का विपय है, वह कह दिया गया है। जहाँ विपय सर नहि स्नान हित रवितापित गजराज (शब्द०)। यहाँ न कहकर उत्प्रेक्षा की जाय तो उसे अनुक्त विपया उत्प्रेक्षा' कहते सूर्यतापित होकर गज का सरोवर में प्रवेश स्नान के लिये ने हैं । जैसे, ‘अजन वरवत गगन यह मानो अथये भानु (शब्द॰) । वताकर यह दिखाया गया है कि वह कमलों को, जो सूर्य के अधकार, जो उत्प्रेक्षा का विपय है, उसका उल्लेख यहाँ नही । मित्र हैं, नष्ट करने के लिये अाया है। | उत्प्रक्षोपमा—सज्ञा स्त्री० [स०] एक अर्यालकार जिसमें किसी एक हैं । ( २ ) हेतूत्प्रेक्षा–जिसमे जिस वस्तु का हेतु नहीं है, उसको उस वस्तु का हेतु मानकर उत्प्रेक्षा करते हैं। इसके वस्तु के गुण का बहुत मे होना पाया जाना वर्णन किया जाता है । उ०—न्या ही गुमान मन मीननि के मानियत जानियत भी रो भेद हैं-'सिंद्धविपया' और 'असिद्धविपया'। जिसमे सबही सुकैसे न जताइये । गवं बाढयो परिमाण पचवण उत्प्रेक्षा का विपय सिद्ध हो उसे ‘सिद्ध विषया' कहते हैं । जैसे, वानि को अनि मन भावि विनू के से के वताइये । केसीदास अरुण भये कोमल, चरण भूवि चलिर्व ते मानु । (शब्द०) ।- सविलास गीत रग रगनि कुरगअ गनानि है के अनसन यहाँ नायिका का भूमि पर चलना सिद्धविपय है परतु भूमि पर गाइये । सीता जी के नयन की निकाई हमही में है सु झ3 हैं। चलना चरणो के लाल होने का कारण नहीं है । जहाँ उत्प्रेक्षा कमल खजरीट हैं में पाइये ।—केशव (शब्द॰) । का विपय असिद्ध अर्थात् असभव हो उसे प्रसिद्ध विपया' कहते उत्प्लव-सज्ञा पुं० [स०] उछालना । कूदना [को०] । हैं । जैसे, अजह मान रहिवो चद्दत थिर तिय-हृदय-निकेत, उत्प्लवन-संज्ञा पुं० [सं०] १ कूदना । उछलना । २ तेल, घी आदि | का मैल कुश से निकालना को०] । मनहू” उदित शशि कुपित ह्व अरुण भयो एहि हेत (शब्द०)। उत्फाल- सज्ञा पुं० [सं०] १ छ नगि मारना । उछलना (को०] । स्त्रियों का मान दूर न होने से चंद्रमा को क्रोध उत्पन्न होना ।। उत्फुल्ल-वि० [सं०] १ विकसित । फूला हुग्रा । प्रफुल्लित 1 खिला सर्वथा असभव है । इसलिये ‘प्रसिद्ध विपया' है । (३) फलोत्प्रेक्षा हुमा । २ उत्तान । चित्त । जिसमे जो जिसका फल नहीं है वह उसका फल माना जाय । उत्सग - सज्ञा पुं० [सं० उत्सङ १ गोद। क्रोड । कोर: । अके। २ इसके भी दो भेद हैं- सिद्ध विपया और प्रसिद्ध विपया। मध्य भाग । बीच । ३ ऊपर का भाग । ४ नि:प्त । विरक्त । 'सिद्धविपया' जैसे, कटि मानो कुच धरन को किसी कनक की ५ राजकुमार के जन्म पर प्रजा तथा करद राजाओं से