पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१४

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लेखक का निवेदन

युक्तोऽयमात्मसदृशान् प्रति में प्रयत्नः, नाऽस्त्येव तजराति सर्वमनोहरं यत् । केचिज्ज्वलन्ति, विकसन्त्यपरे निमीलन्- त्यन्ये थदस्युदयभाजि जगत्प्रदीपे । –अाचार्य भामह

  • हिन्दी शब्दानुशासन' यह आप के हाथों में है। कैसा है, क्या है,

यह सब कहना-बतलाना कोई अर्थ नहीं रखतः । | मेरी इच्छा थी कि इस पर विद्वान् विचार-विमर्श करते चले, तो अच्छा । इस लिए मैं ने सभा को पत्र लिखा कि मैं महीने के महीने लिखा हुआ अंश भेजता जाऊँ या और सभा' इस की दस प्रतियाँ टंकित करा-कुरा के अधिकारी विद्वानों की सेवा में महीने के महीने भेजती रहे, जिस से कि साथ के साथ विद्वानों के परामर्श मिलते रहें, उन पर विचार कर के वस्तु का परिमार्जन होता चले । ऐसा ही किया गया और अधिकारी विद्वान से निबेदन किया गया कि इस ग्रन्थ में व्याकरण तथा भाषाविज्ञान सम्बन्धी नई उद्भावनाएँ हैं; इस लिए इन पर विचार कर के परामर्श देते रहने की कृपा करें--मत-विमत प्रकट करते हैं, जिससे कि चीज का निखार साथ- साथ होता चले | ग्रन्थ के आदि से अन्त तक की प्रतियाँ बराबर भेजी गई । विद्वानों ने कृपा कर के उच्चर भी दिए पर व्याकरण तथा भाषाविज्ञान की किसी भी उद्भावना पर किसी ने भी कोई मत प्रकट नहीं किया । डा० सुनीति कुमार चालुज्य ने तो इतना ही लिख भेजा कि वाजपेयी जी इस विषय पर लिखने के पूर्ण अधिकारी हैं । अादरणीय पं० अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने भी व्याकरण के किसी सिद्धान्त पर तो कोई बात नहीं कहीं; परन्तु संस्कृत अकारान्त स्त्रीलिङ्ग संज्ञाओं को हिन्दी तद्भव-रूप में जो अकारान्त हो जाने की कार-उद्भावना मैं ने की है, उसे का अनुमोदन किया और 'नागिरी भाषा तथा लिपि के संबन्ध में लिखा कि मेरा भी यही मत है ! वाजपेयी जी की सम्मति तो १६४३ में ही मालूम हो गई थी, जब मेरे ब्रजभाषा-व्याकर के भूमिक-भाग को श्राप ने खुल कर स्पष्ट-रूप से हिन्दी के व्याकरणों का