पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१४१

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में भी आ जाती है---राम जाय’ लड़की फल खाय' इत्यादि । ओतना ‘वतना’ ‘उतना’ देखिए । “इतना कहीं { पूरब में) 'यतना' के रूप में भी जनहीत है, जो एतना से है ! इसी लिए इनका नाम ‘अन्तस्थ' रखा गया होगा । ‘अन्तः१ मध्ये स्वरव्यञ्जनयोः) तिष्ठन्तीति अन्तःस्थाः' । 'अन्तः स्थः के विस का लोप संस्कृत-व्याकरण की प्रक्रिया से होकर-‘अन्तस्थ' । यह मेरी अपनी कल्पना है, जो असती नजर आती है । कुछ भी हो, य, व, र, ल व्यंजन ‘अन्सस्थ' हैं ।

२-~-अनुनासिक अल्पप्रणि

वर्गीय पंचम व्यंजन ( , ३, ए, म, न ) अनुनासिक ‘अल्पप्राण’ हैं । इनका' उभ्यारण् फोमल तो ( अन्य अल्पाव्यंजनों का सा ) है ही; परन्तु उस ( फोमलता ) में मधुरत भी आ मिली है। मन मेरो नहिं मानै' का माधुर्यं देखिए और चित्त कहा मेरा न करे से मिलान फीजिए। एक जगह कोमल-मधुर स्वनि है, दूसरी जगह केवल कोमल । ढ, ध, घ, भ, व्यंजनों से भरे पद दे दें, तो कठोरता आ जाएगी । “भूधराझार और ‘पर्वताकारं इन दो विशेषणों में से कौन सा ‘कुम्भकर्ण के लिए ठीक बैठेगा ? तुलसी ने भूधराकार दिया है। पर्वताकार' में वह बात नहीं । सो, मधुरता की विशेषता से इनकी एक पृथक श्रेणी रखनी चाहिए- ‘अनुनासिक अल्पप्राण' या 'कोमल-मधुर व्यंजन । इसी लिए ‘नयन' और चक्षु' का प्रयोग-भेद है—एक का कोमलाङ्ग के लिए, दूसरे का परुषाङ्ग के लिए। हिन्दी के गठन में ङ, अ तथा ‘ए’ का कोई योग नहीं है। जो मिठास “न” तथा “म” में है, वह इन तीनों में नहीं है । इसी लिए हिन्दी ने ‘न' तथा ‘म’ को ही अपनाया है। संस्कृत ( तद्रूप ) शब्द जो हिन्दी में प्रयुक्त होते हैं, उनमें ही ये ( ङ, अ, ण ) व्यंजन आते हैं:---‘वाङमय चाञ्चल्य’ पाण्डित्य' आदि । ङ तथा अ की अपेक्षा ‘ए’ अधिक आता है-—कारण, धारणा, मरण, भरण, पोषण आदि । ‘कु’ संस्कृत में भी बहुत कम अन्य रूप से ( ‘प्रत्य आदि में ) आता है; पर ‘अ’ तो ( अन्त में ) मिलेगा ही नहीं ! आदि में तो कभी भी थे ( ज, ङ, ण ) आएँगे ही नहीं । हाँ, प्राकृत में जरूर कारादि शब्दों की भरमार है। | इन अनुनासिक अल्पप्राण व्यंजनों को द्विस्थानीय समझना चाहिए, क्योंकि इनके उच्चारण में मुख के झूठ आदि भागों के साथ नासिका को भी सहयोग है। इसलिए-