पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१४४

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से ही अल्पप्राण ( वर्गों के प्रथम-तृतीय) व महाप्राण बन गए हैं, जो कि एक-एक सीढ़ी आगे बढ़ कर द्वितीय-चतुर्थ व्यंजनों के रूप में स्थित हैं । दो महाप्राण एक साथ संयुक्त हो कर नहीं रहते । “ह ‘ह, मिलकर नहीं आते । इसी तरह यू' में “घ”, “लू में ‘ख’ और ‘धू’ में ध का संयोग नहीं होता । एक नरम पड़ जाता है-'क्रुद्ध-बुद्ध' । पहला ‘’ ‘द’ बन गया है । नरम-गरम का मेल हो सकता है । हाँ, ‘स के साथ ‘स मिलता है । ‘मस्सा

  • कित्सा' आदि। स’ की अपेक्षा ह’ जोरदार है-“असली बब्बूर' ।

| जैसे ए ऐ ओ औ ये संयुक्तं स्वर हैं, उसी तरह वर्गीय द्वितीय-चतुर्थ वर्षों को भी ‘संयुक व्यंजन' कहा जा सकता है। और जैसे उन्हें द्विस्थानीय कहा गया हैं, उसी तरह इन्हें भी कहा जा सकता है । इस दृष्टि से स्थान- निर्धारण ये किये जा सकता है। इनमें ल-9' का कंठ (६क है; } स्थान रहेगा, क्योंकि कम का भी कंठ स्थान है और 'इ' का भी । शोध वय महाप्राण ‘द्विस्थानीव' समझे जाएँगे । एक स्थान अपना और दूसरा हुने का

१-छु झ - तालु - कंठ

२–थ ध - दन्द - कुंठ

३-ठ ढ - मूद्ध - कंठ

४–फ भ - श्रोष्ठ - फंड

जैसे उन संयुक्त स्वरों को विशिष्ट र प्राक्ष हो जाने के बाद पृथक लिपि-संकेत प्राप्त हुए, उसी तरह इन संयुक्त व्यंजनों को भी } हो संयुक्त व्यंजन पृथक् स्वरूप रखते ही हैं--क्या, स्त, श्म श्रादि । हाँ, ह' त्र ज्ञ' का भी विशिष्ट रूप हो गया है और लिपि-संकेत भी पृथक् हो ए हैं। भी ऐसा ही है । वधु-प्रणाली में लू 'व' के रूप भी ‘क्ष ‘त् लिखे जाते हैं, पर श्री’ वहाँ भी एकरूप है। ये इस तरह की बातें हैं लिपि-संबन्धी ) ऐसी हैं, जिन पर विस्तार से यहाँ लिखना न सम्भव है, न प्राकृतिक ही है। ऊपर सर्वत्र ‘क’ ‘ख’ ग्रादि व्यंजनों में उच्चारणार्थ अन्त में अ' है । इस ‘अ’ को अलग कर के ‘कू’ अादि व्यंजन मात्र के ३ ( कंठ आदि )

  • स्थान' समझने चाहिए । अन्यथा, स्वर का स्थान भी समाविष्ट हो :एगा |
  • चि' कृr जरूर तालु' है; क्योंकि स्वर-व्यंजन दोनों समस्थानीय ईं। परन्तु उदा-