पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१६५

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( १२० ) विभक्ति की अनिवार्यता नहीं है। निर्विभक्तिक ‘शब्द’ भी प्रयुक्त हो कर सब काम करते हैं । यदि विभक्ति के बिना काम चल जाए, तो फिर उसे अजा- बालस्तन' की तरह लटकाने-अटकाने की क्या जरूरत ? अर्थश्चेदवगतः किं शब्देन’ ? अर्थ निकल गया, तो फिर उसके लिए व्यर्थ शब्द-प्रयोग किस कास का ? संस्कृत में रामः सुखेन पठति रामायणम्' में ‘सुखेन देना ठीक नहीं समझा जाता; क्योंकि कुछ लोग जानते हैं कि मुहँ से ही पढ़ा जाता है। तब फिर मुखेन' करण देने की क्या आवश्यकता ? इसी तरह ‘मेघः जलं वर्धति' में ‘जलम् कर्म देना अनावश्यक है। मेध क्या सोना-लोहा भी बरसात है, जो अलमू' कहा जाए ? संस्कृत की इस पद्धति से हिन्दी कुछ आगे बढ़ी है। यहाँ यह सिद्धान्त है कि विभक्ति के बिना ही यदि कारक-ज्ञान हो जाए, तो फिर उस (विभक्ति) का प्रयोग क्यों किया जाए ? अर्थश्चेदवतः किं शब्देन’ ?

'राम गोविन्द को देखता है

ऊपर के वाक्य में 'राम' निर्विभक्तिक पद हैं और देखता है। क्रिया का

  • कता है। कर्तृत्व प्रकट करता है और इसी लिए ‘पद है; यद्यपि कोई

विभक्ति साथ नहीं है। ‘गोविन्द कर्म हैं, जिसमें को’ विभक्ति का प्रयोग है; जरूरी है। यदि यहाँ को न रहे, तो पता न चले कि कर्ता कौन है, कुर्म कौन है ! कौन देखता है, किसे देखता है, यही न जान पड़ा, तो फिर भाषा क्या हुई ? हिन्दी में कूत-कर्म आदि को आगे-पीछे रखने का कोई निर्देश- बन्धन सामान्यतः नहीं है। इसी लिए यहाँ कुर्म में को’ विभक्ति लगाना जरूरी है। परन्तु दूसरा प्रयोग देखिए:--

‘राम घर देखता है

इस वाक्य में कर्ता तथा कर्म दोनो ही विभक्ति-रहित हैं। फिर भी

अर्थ स्पष्ट है । कर्तृत्व-कर्मत्व समझने में कोई दिक्कत नहीं; इस लिए कि देखना क्रिया अॉखों की अपेक्षा रखती हैं, जो 'राम' के ही हैं, “घर' के नहीं । इस लिए, यह भ्रम किसी को हो ही नहीं सकता कि “घर राम को देखता है।