पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१६४

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द्वितीय अध्याय

'शब्द' या पद

कहा जा चुका है कि अर्थसंकेतित इब्द था पदों का समूह ‘भाषा है। और भाषा के अंग-प्रत्यंग का विवेचन-विश्लेशण; व्याघर या शब्दानुशासन' है । प्रयोग-विवेचन के कारण इसे 'ब्दानुशासन' कहते हैं। शब्दानुशासन में 'शब्द' शब्द द’ के अर्थ में या हैं। वैसे वर्ण' भी शब्द है, मैद' झी शब्द है और बाद भी शब्द है। व्याकरण में व घर, पद, कर और प्रसंगदः वाय पर भी विचार होता है। पर 'अनुशासन' पर्दी का होता है । पहले कई अझ हैं के व्याकरण' तर ‘शब्दानुशासन' मिल कर इक हो गई हैं। नी, व्याकरण में शब्दों का अनुशासन भी रहता है और ‘व्दी- नुशासन' में वर्षों तथा पर्दो की बनावट आदि पर भी विचार होता है। यों, ये दोनो शब्द (व्याकरण” तथा “शब्दानुशासन’ } एक दूसरे के पूरक होकर वाद में पर्याय बन गए हैं । संस्कृत-व्याकरण में ‘चन्त’ और ‘तिङन्त' शब्द “पद” कहलाते हैं- ‘सुतिङन्तं पदम् । ‘रामः करोति' में ‘ःमः' तथा 'करोति’ ये दो ‘पद हैं; एक ‘सुबन्त’ दूसरा तिङन्त' । वहाँ ‘राम करोति' हो नहीं सकता, इस लिए ‘सुबन्त' को पद कहा हैं। यही बात ‘तिङन्त' के बारे में भी है। जैसे निर्वि- भक्तिक राम’ ऊत-कारक नहीं हो सकता, उसी तरह ‘ति-प्रत्यय-रहित ‘कृ’ छातु भी कुछ झर-धर न सकती ! इस अवस्था में एक शब्द ‘प्रार्ति- दिक कहलाता है, दूसरा धातु” ! न लिददिक का प्रयोग होता है, न “धातु का ! जब विभकियाँ लग जाती हैं, तब दोन? “पद” बन जाते हैं-

  • द' चलने लगते हैं । रामः संज्ञा पद र आरोति' क्रिया-पद् । “धालु

के सम्बन्ध में जो कुछ कहना है, उसी के प्रकरण में कहा जाएगा । यहाँ संज्ञा-पद के बारे में ही विचार किया जाएगा ! | संस्कृत का जैसा ‘प्रातिपदिक हिन्दी में नहीं है। कारण यह कि यहाँ विभकि-प्रयोग की अनिवार्यता नहीं है। यहाँ तो ‘अर्थसंक्रेतित शब्द' ही ‘द' है, यदि वाक्य का अंश है। चाहे उमें कोई विभक्तिः हो, या न हो !