फल खाया। राष्ट्रभाषा में जो एकवचन का रूप है, वह राजस्थानी में
बहुवचन का है। स्त्री-लिङ्ग से सर्वत्र समानता है—इकारान्त रूप-ऐसी
कुछ स्पष्ट से समझिए । प्रदेश-भेद से “प्रथम-प्राकृत' के ही रू-भेद
हो गई है तब द्वितीय प्रकृती में भिन्नता तो और भी अधिक स्पष्ट हो गई
हो । श्रन्नु स प्रादेशिक प्राकृत में साहित्य नहीं बना । इसी लिए उन
सु के इस सत्र के रूप आज हमारे सामने नहीं हैं । किसी एक ही प्राकृत
में रूई प्रदेश के लोग साहित्य-रचना करने लगते थे । आज भी पर्बतीय
प्रदेश १ कुमायूँढ़वाल ), ब्रजे, बँदेलखण्ड, अवध, बिहार, छत्तीस गढ़
१ ० १ ०}, इमेल-खरद्ध झादि झी अपनी-अपनी पृथक् प्राकृत-भाषाएँ
१ नि } है; पर बच जइहू के लोग साहित्य-रचना हिन्दी में करते हैं, जो
मू; उत्तर देश के मेरठ श्रादि दो-ढाई जिलो की प्राकृत-भाषा या
दोल' हैं ।
। खैर, अब्ध प्राकृतो मैं युल्लिङ्ग-एकवचन रूप ओकारान्त सिलते हैं,
रैर अह वा संस्कृत पुं० एक वचन (राम' आदि ) के विसग का
वित हैं। प्रकृती ने विसर्ग उड़ा दिए थे; कहीं ‘अ’ कर लिया और कहीं
लो र हि । अधिक खुलासा परिशिष्ट में करेंगे । यहाँ विशेषण-र्चा में
कुॐ त्रश्य । एकचन झोकारान्त व राजस्थानी में प्राकृत से आए हैं ।
उर्स पद्धति पर विशेषण, क्रिया तश संज्ञा-रूप---
एकवचन बहुवचन
स्कृत--पुत्र श्र ---पुत्रः आता;
प्राकृत--चो दो---मुचा अगदा
राना ---ङ्कः श्रा --- श्रा
इस के विपन्न प्रदेश से कोई ऐसी हद चलती हो गी, जिस में
त्रिस 7 चिक्का ? रूप में है ऊर ‘अ’ रूप में हुआ हो गा । विसर्ग
या उसु से मिलती-जुली ध्वनि 'अ' के रूप में बदलती रहती है-उषः)
उ, पदई ऊदादा श्रादि । साँ, *पुत्रः कः ‘पुलो' रूप जहाँ अन्य प्राकृत
में डुछा, कुन पद में (भैरट के इधर-उधर) उसका श्राकारान्त रूप ‘पुत्ता
हो या हो । । इदी ने उसे प्राकृत का विकास है, जिस के निखरे हुए
होझों ऋ३ विन्द ने अइलु कर लिया, वो आज हिन्दी भाषा के रूप में
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