पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(३०१)

हिन्दी शब्द-भ्रम को पसन्द नहीं करती । संस्कृत में तिथि द्वितीय, तृतीया, चतुर्थी और बालिका आदि के लिए विशेष भी द्वितीय, तृतीया, चतुर्थी । परन्तु हिन्दी में तिथि दूज, तीज, चौथ श्रादि और अन्यत्र विशेषण ( स्त्री ) दूसरी, तीसरी, चौथी । तिथि ‘पॉर्चे और बालिका ‘पाँचवीं । तिथि छठि' या ‘छठ और बालिका छठी' । 'सातै’ और ‘सातवीं' । “पाँच आदि से अवच्छेदक तद्धित-प्रत्यय ६' और उस में पुविभक्ति लगा कर ‘पाँचवाँ सातवाँ आठवाँ । स्पष्ट ही यह बँ' प्रत्यय संस्कृत 'म' का विकास है ! 'न' को प्रायः ‘ल’ निरनुनासिक’ और ‘म’ को ‘बँ’ ‘अनुनासिक होता है । सैस्कृत 'ठ' को हिन्दी ने ठा कर लिया है--घड:-छठ | सौं’ से

  • सौवाँ' बने गा; परन्तु इससे अागे अंकों का व्यवहार ! अङ्कों के आगे ‘वाँ

‘बी’ लगते हैं–१०५ वाँ छात्र’ ! एक सौ पाँचवाँ' नहीं । इसका मतलब यह • निकला कि प्रत्यय भाषा को देखता है, लिपि को नहीं । ५१०५ वाँ' पढ़ा जाए' गा---एक सौ पाँचवाँ' । परन्तु यह उच्चारण अक्षरों में न लिख कर प्रायः अंकों में ही लिखा जाता है । ‘१५२७६ वाँ लिपाही' अक्षरों में लिखने से बहुत लम्बी लाइन बन जाए गी--पन्द्रह हजार दो सौ उनासीवाँ सिपाही । और फिर भी ‘बाँ' प्रत्यय केवल उनासी’ से संयुक्त हुआ, पूरी संख्या से नहीं । अङ्कों का प्रयोग करने में यह सब गड़बड़ नहीं । संस्कृत में भी ‘१६७२ तमे वैक्रमाब्दे जैसा लिखते हैं। सम्भव है, यह हिन्दी का प्रभाक हो । पुरानी संस्कृत में ऐसे अङ्कात्मक प्रयोग प्रायः नहीं मिलते ।। हिन्दी का पहला शब्द संस्कृत प्रथमः' का रूपान्तर (विकास) है। हिन्द में कोई ‘पह” या “प्रथ’ शब्द नहीं कि उससे तद्धित ‘ल प्रत्यय की कल्पना की जाए। “प्रथमः' के अर्थ वर्ण से २ का लोप, द्वितीय वर्ष से “तु' अंश का लोप, अन्त्य ‘म’ को ‘ल और विसर्गों की जगह 'अ' पुंविभक्ति-- पहला' । परन्तु यह ‘प्रथम:' कैसे ? संस्कृत में एक शब्द से वैसा कोई प्रत्यय चाहिए था। ‘द्वितीय' आदि में प्रकृति ( ‘द्वि” आदि ) की स्पष्ट प्रति- पचि है; परन्तु 'प्रथम' में 'एक' का कुछ भी आभास नहीं ! अंग्रेजी के ‘फस्ट' में भी 'वन' का प्रभास कहीं नहीं और आगे सेकंड में ‘टू' का भी आभास्क नहीं। इस के आगे ‘थर्ड' आदि में श्री आदि की झलक साफ है । ‘प्रथमः' शब्द मूलतः कृदन्त जान पड़ता है । ‘प्रथ' धातु फैलने के अर्थ में है। एक संख्या का मूल है। आगे सब इसी का विस्तार-फैलाव है-“प्रयते इति प्रथमः----‘अङ्कः प्रथमा संख्या । जो आगे फैले, वह “प्रथम' । 'एकः प्रथमः अङ्कः' । एक प्रथम में