पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३७५

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सम् अध्याय

वाक्य का गठन

हिन्दी में वाक्य का गठन अत्यन्त सीघा--सादा और मोहक है । पीछे वाक्य की विभिन्न इकाइयो का--विभिन्न श्रेणी के पदों का--जो परिचय दिया गया है, उसी से वाक्य का गठन स्पष्ट हो जाता है; परन्तु इस के बारे में कुछ विशेष बातें कहती हैं। इसी लिए इस स्वतंत्र अध्याय का आरम्भ है । अंग्रेजी अरदि की तरह हिन्दी और संस्कृत में पदों का विन्यासक्रम नियमो की बेड़ियों से ऐसा जकड़ा हुआ नहीं है कि हिल-डुल न सके ! यहाँ तो भाषा का स्वरूप ही ऐसा है कि पद-प्रयोग में अक्रम होने पर भी साधा- रणतः अर्थ-बोध में कोई गड़बड़ी नहीं पड़ती । जहाँ पद-क्रम की अनिवार्य व्यवस्था है, वहीं विशेष ध्यान देना पड़ता है। ऐसे स्थलों का निर्देश आगे किया जाए गा । परन्तु साधारणतः वाक्य का गठन वैसा जटिल नहीं है कि अर्थबोध में दिक्कत अाए । हमारे कहने का मतलब यह नहीं है कि हिन्दी में पदों का प्रयोग अव्य- वस्थित है। व्यवस्था तो बड़ी सुन्दर है; परन्तु जटिल नहीं है। पदों की जो साधारण क्रम रहता है, कविता आदि में वह इधर-उधर हो जाए, तो भी अन्वय-बोध में कठिनाई नहीं होती; इतना मतलब ! हाँ, यदि कोई बिलकुल ही अंटसंट लिखे, तब तो बाते ही दूसरी है ! तब भाषा का नहीं, प्रयोक्ता झा दोष समझिए । साधारणतः वाक्य में पहले कर्ता रहता है, फिर क्रिया । क्रिया मुख्य या विधेय होती है; इस लिए उस का पर-प्रयोग । ज्ञात से अज्ञात की ओर जाना स्वाभाविक है । 'राम' को हम और आप जानते हैं कि कौन है, किस का लड़का है; इत्यादि। परन्तु उसकी विविध क्रियाएँ हमें अज्ञात हैं। जो उस की जिस क्रिया से परिचित हो गया, वह दूसरों को बतलाता है-- ‘राम सो रहा है। राम बैठा है’ ‘राम लजाता है' इत्यादि । ये विभिन्न क्रियाएँ उस की सब को ज्ञात नहीं, जैसा कि वह स्वयं ज्ञात है । फ्ता' सत्र को नहीं कि वह क्या कर रहा है, क्या उस ने किया है और क्या करने वाला है ।