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उत्तरार्द्ध

प्रथम अध्याय

क्रिया-प्रकरण

पूर्वार्द्ध में उद्देश्यात्मक शब्दों पर विचार किया गया । अब यहाँ उत्तरार्द्ध में-वाक्य के विधेय अंश पर विचार किया जाए गा--‘क्रिया' तथा 'क्रिवा- विशेषण' श्रादि देखे जाएँ ये ।। | ‘राम सो रहा है इस वाक्य में राम' उद्देश्य है ‘लो रहा है' विधेय है । उद्देश्य ज्ञात रहता है, सिद्ध-अवस्था में होता है और विधेय (पूर्व ) अज्ञात रहता है, साध्य होता है । इम’ को आप जानते हैं कौन है, किस का लड़का है; परन्तु उस की विविध क्रियाओं से आप अपरिचित हैं। उस की ये क्रियाएँ जिन शब्दों के द्वारा बताई जाती हैं, उन्हें ‘विधेय' कहते हैं । साधारणतः उद्देश्य का प्रयोग पहले होता है, विधेय झा तदनन्तर --‘राम पढ़ता है, खेलता भी है। इसी लिए उद्देश्य का निरूपण पहले किया गया और उस के परिकर को भी परिचय दिया गया । अब विधेय का निरूपण हो गई। इस पूर्वापर-प्रयोग को प्रायिक समझिए, अनिवार्य नहीं । राम पुस्तक पढ़ता है। जैसे साधारण प्रयोग हैं। इसे उलट कर पढ़ता है राम पुस्तक जैसा कर दें, तो अटपटा लगे गा | मतलब तो समझ में आ जाए गा; परन्तु शब्द-क्रम अव्यवस्थित होने से वाक्य बेढंगा जान पड़े गा । कहा गया है :- ‘यच्छब्दयोगः प्राथम्यं सिद्धत्वं चाऽनूता ।' 'अनुवाद्य' यानी ‘उद्देश्य' का प्रयोग प्रायः ‘यत्' ( ‘जो’ ) शब्द के साथ होता है ।। ‘जो काम करे गा, वह सुख पाए गा’ २५