पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/४३१

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( ३८६ ) इस में प्रथम वाक्य उद्देश्यात्मक है । जो शब्द से उद्देश्य का निर्देश है। | *प्रथिम्य' या पूर्व-प्रयोग भी उद्देश्य का स्पष्ट ही हैं। इसे उलट कर थों साधारशतः न किया जाएगा- ‘वह सुख पाए गा, जो झीम करे गा”। उद्देश्य और विधेय का क्रम न रखने से कभी-कभी नार्थ-भ्रम भी हो जाता हैं। झिसी ने कहा- ‘श्रौषधं जाह्नवीतोयम्' -‘औषध गैरराजुल है। और 'वैद्यो नारावणो हरिः –वैद्य हमारे भगवान् हैं । | निश्चय ही एक वीतराग सन्तु की यह उक्ति है । अब दवा-श्रौषध कं या वैद्य-डॉक्टर की जरूरत नहीं। गंगाजल ही दवा हैं र नारायण ही हमारे वैद्य हैं। यह भाव है। परन्तु उद्देश्य-विधेत्र का पूर्वपर क्रम बदल देने से मतलब उलटा भी प्रतीत होता है ! जान पड़ता है कि कोई संसार- कीट कह रहा है कि ‘दवा मेरे लिए गंगाजल हैं। चाहे जो मिला दो; कोई विचार नहीं है और 'वैद्य ही मेरा नारायण है। वह जो कुछ भी कहे गा, मेरे लिए शिरोधार्य है। दोनो तरह के व्यक्ति संसार में हैं। इस लिए सन्देह को अवसर है कि वाक्य का असली मतलब क्या है ! इस तरह के सन्देह को अवसर न मिले; इस लिए उद्देश्य-विधेय की पूर्वापर क्रम निश्चित है। विधेय के लिए कहा गया है--- . ‘तच्छब्दयोग औ4 साक्ष्यत्वं चेति विधेयता' ---बिधेय का निर्देश 'सत्' ('वह' या 'सो' ) शब्द में होता है, पर- प्रयोग होता है और वह साध्य होता हैं-वह सुख पाए गए। कभी कभी इस क्रम में परिवर्तन भी होता है। यदि विशेष जोर देना हो, तो---- ‘सुख वह पाए गा, जो काम करे गा ।' यों विधेय अंश का पूर्व प्रयोग होता है। परन्तु सब से श्रागे 'सुख' है ।

  • वह सुख पाए गा' न हो गी । परन्तु 'वह दुख पाए गा, जो गुरुजनों की