पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५६२

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परिशिष्ट भाग

परिशिष्ट-१    
हिन्दी की कुछ बोलियाँ

जैसा कि हिन्दी नाम से प्रकट है, समूचे हिन्द में बोली-समझी जाने चाली भाषा ‘हिन्दी । इस महादेश में यह परम्परा रही है कि विभिन्न पदे की अपनी-अपनी भाषा रहते हुए भी समूचे देश में बोली-समझी जाने वा एक सब की सामान्य भाषा भी रहती रही है। व्यापार, शिक्षा या शासन की दृष्टि से अन्तर-प्रदेशीय वागमन होता है। इस तरह का आवागमन वही लोग करते हैं; जो कुछ शिक्षित होते हैं। एकदम प्राकृत जनों के बस की यह बात नहीं ! उन्हें जरूरत भी नहीं । हाँ, तीर्थयात्री अवश्य सब तरह के लोग करते हैं और ऐसी स्थिति में इन्हें भी देशव्यापी सामान्य भाषा का आश्रय लेना पड़ता है। | देश भर में प्राकृत के उतने भेद हो जाने पर बहुत दिन तक देश की सामान्य व्यवहार-भाषा शायद संस्कृत ही रही । ऐसी स्थिति में संस्कृत भी द्विव विमक हो गई हो गी; एक उच्च संस्कृत और दूसरी साधारण संस्कृत, जो साधारण अनों के प्रयोग से कुछ और तरह की हो गई हो गी । आज की साहित्यिक हिन्दी’ और ‘साधारण जनतई की हिन्दी समझिए, जिसे ‘बाजारू हिन्दी कहते हैं। शब्द-प्रयोग करने में साधारण बन पूरी सावधानी तो रखते नहीं हैं। परन्तु वह भाषा चलती है और वह ‘बाजारू हिन्दी' भी ‘हिन्दी' ही कहलाती है। शिष्ट या साहित्यिक संस्कृत में भी प्रयोग-भेद से कदाचित् दो प्रमुख रूप ग्रहण कर लिय् थे । इसी लिए याणिनि-सूत्रों में वैसा निर्देश अता है। पाणिनि-सूत्रों में विभाषा' और 'अन्यतरस्याम् शब्द विचारणीय हैं। इन दोनों शब्द को 'वा' यानी विकल्प के अर्थं में अहण करते हैं। परन्तु पाणिनि-व्याकरण के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं,