पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५६३

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संस्कृत-साहित्य के किसी भी भेद-प्रभेद में, ये शब्द 'वा'-'अथवा' के अर्थ है आते नहीं हैं । गच्छति न बा' की जगह कभी भी ‘गच्छति विभाषा' या 'गच्छति अन्यतरस्याम्’ नहीं कह सकते ! तो, क्या कारण है कि पाणिनि ने विकल्पार्थः ‘वा' के रहते भी ‘विभाषा' तथा अन्यतरस्याभू' जैसे दीर्घकाय शुब्द कहीं-कहीं दिए ? •विभाषा के लिए यह भी कहा गया है-नवेति विभाषा-विभाषा' कृहीं निषेत्र में है, झहीं विकल्प में। थान’ ‘विभाषा कहने से “न' किंवा 'विकल्प' समझना चाहिए ! २' कहने की तो जरूरत ही न थी ! जिस शब्द का भाषा में प्रयोग ही नहीं होता, उस पर विचार कौन करता है ? 'राम ने रोटी खाई प्रयोग होता है; इस पर विचार किया जाए गा; पर यह न कहा जाए ग़ा कि ग्राम से रोटी खाई नहीं बोला जाता । हाँ, विकल्प बतलाया जा सकता है कि काशी की और साहित्यिक लोग राम के लड़की हुई’ की जगह ‘राम को लड़की हुई' भी लिख देते हैं । यह के को’ की वैकल्पिक बात है और ‘लिख देते हैं कहने से स्पष्ट है कि वैसा प्रयोग सार्बदेशिक नहीं है। परन्तु जिस का प्रयोग होता ही न हो, उस का निषेध क्या ? सोचने की बात है। अन्यतरस्याम' भी विचारणीय है । ऐसा जान पड़ता है कि देश में पाणिनि' के समय उच्च संस्कृत के दो प्रमुख भेद थे। भाषा एक होने पर भी शब्द-प्रयोग में कहीं कुछ अन्तर था। पाणिनि जिस भाषा के थे, उसी पर उन का ध्यान था । भाषा के दूसरे रूप में जहाँ कहीं उन्हें अन्तर दिखाई दिया, उसे भी ‘अन्यतरस्याम्' कह कर बतला दिया । दो में से एक भाषा-अन्यतरा' । अन्यतरस्याम्' कहने से उस समय ‘अन्यतरस्युम्, भाषायाम् लोग समझ लेते हों गे । “दूसरी में ऐसा-यानी दूसरी संस्कृत में, संस्कृत के अन्यतर रूप में । “मराठी की भी लिपि नागरी ही है। यहाँ मराठी' शब्द से “मराठी भाषा ही समझी जा गी, ‘मराठी’ कोई दूसरी चीज नहीं । व्याकरण 'भाषा' पर विचार करता है; इस लिए अन्यतरस्याम्' कहने से “भाषायाम्' ही समझा जाए गा, ‘लतायाम्' आदि नहीं । पाणिनि का व्याकरण संस्कृत के दोनों रूपों ने मान लिया और आगे चल कर संस्कृत ने जब प्रादेशिक भेद-भाव छोड़ दिया, तो दोनों तरह के प्रयोग सर्वत्र चलने लगे और अन्यतरस्यामू' शब्द विकल्प में ले लिया गया। चाहे ऐसा प्रयोग करो, चाहे वैसा । यह तो शिष्ट-भाषा को हाल ) जो संस्कृत साधारण शिक्षित बोलते हो , उस में अशुद्धियाँ अधिक रहती होंगी। उसी को पाणिनि ने कदा