पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/५८३

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(ग ) कन्नौजी यो पाञ्चाली पीछे हिन्दी की जिन बोलियों का उल्लेख हुआ है, वे सब ( खड़ीबोली, राजस्थानी तथा ब्रज-बोली ) विशेष रूप से कृदन्त-प्रधान हैं। जाता हैं--जाती है, जान है—जाति है; अादि वर्तमान ( या सामान्य प्रयोग ); जाता था-जाता थी, गया था-गई थी और जात हो-जाति ही, जात रह्यो-जात-रही, जीत हो-जात हती आदि भूतकाल के क्रिया-रूप तो कृदन्द हैं ही, भविष्यत् में भी कृदन्त की छाया है-जाए गा-जाए गी” और जाए जाएगी ।' राजस्थानी में भी यही बात है। यानी हिन्दी की ये तीनों बोलियाँ कृदन्त-बहुल हैं। कनौजी या पाञ्चाली की सीमा ब्रज से मिलती है और इस का 3' पुंप्रत्यय ब्रज में भी पहुँच गया है; परन्तु फिर भी इस ( कन्नौजी या पाञ्चाली ) की पद्धति स्पष्टतः बदली हुई है। यह बोली कृदन्त-बहुल वैसी नहीं है, जैसी कि वे तीनो। हिन्दी की उन तीनो बोलियों के साथ पंजाबी को भी देखें, तो कृदन्त-प्रियता एक लंबी पट्टी में दूर तक चली गई है। राजशेखर ने इसी विस्तृत भू-भाग को कदाचित् । ‘उदीच्य’ शब्द से याद किया है-‘कृप्रिया उदीयाः-उत्तर के लोग कृदन्तप्रिय है । कन्नौजी’ से दूसरी बार शुरू होती है, जो कि आगे पूरब में बढ़ती हुई बैसवाड़ी, अवधी, भोजपुरी, मगही, मैथिली आदि रूप धारण करती हुई विहार में पेंचरंगी हो जाती है। बिहार तक ही हिन्दी की बोली है। आगे बंगाल है, जहाँ 'क' तथा 'के' प्रत्यय-विभक्तियाँ हैं ही नहीं, जो हिन्दी की बोलियो की पहचान हैं। हमारे' कहने का मतलब यह कि हिन्दी की बोलियाँ दो समूह में बँटी हुई हैं। पर्वतीय बोलियाँ ( गढ़वालं? तथा कूर्माञ्चली आदि) भी इन्हीं दोनो भागों में आ जाती हैं। एक भाग कृदन्त-बहुल हैं, दूसरा तिन्त-बहुल' । दोनो समूहों में दोनो तरह की क्रियाएँ हैं, परन्तु कम-ज्यादा की बात है । बोलियों को ही नहीं, भिन्न ( बँगला, पंजाबी, मराठी आदि ) भाषाओं को भी एक दूसरी से विभक्त करनेवाली विमकियाँ ही हैं, जो संज्ञा-विभक्ति ‘को–ने आदि रूप में सामने आती हैं। विभक्ति ही ‘प्रातिपदिक’ को विभिन्न कारों में तथा धातु' को विभिन्न काल की और पुरुष-बन्चन, की क्रियाओं के रूप में विभक्त करती है। वही विभक्ति एक व्यापक भाषा की विभिन्न ‘बोलियों को श्रापस में तथा एक ही मूल से