पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६२९

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कभी-कभी संबन्ध को 'क' प्रत्यय 'के रूप में भी आता हैः-- माँग टीका प्रमु तोहे कुहु, पूत भोरा नयनाके इंजोरवा भइँसुर माँथके टिकुलिया, एहो रे सब अभरन हे !' --हे मेरे स्वामी, रोरी माँग के टीका तुम हो; मेरा पूत मेरे नेत्रों का उजाला है और मेरा जेठ मेरे मस्तक की टिकुली है । ये ही सब मेरे अभरण हैं । परन्तु के भी ‘क’ की तरह एकरस है---‘भाँगके टीका और 'माँथके टिकुलिया। जिस समय उस समय' आदि के लिये समस्त शब्द लखन' तखन’ बड़े भले मालूम देते हैं। क्षण' को ब्रजभाषा मैं ‘छन’ “छिन' जैसी रूप मिलते हैं; मैथिली में खन' ।। बखन गगन घन बरसले सजनि गे, सुनि इहरत भिव मोर ।। ---जिस समय आकाश में ( गरजते हुए ) बादल बरसते हैं, मैरा कलेजा काँप उठता है--दिल घड़कने लगता है ।। कभी-कभी चैन' जैसे शब्दों को चयन' जैसा कर के स्थार्थिक प्रत्यय होता है: रतियाकं देखल सपनवाँ रश्मा, | कि प्रभु मोरयल । भोहि बिरहिनिक बान सम लाशय, पपिहाक निठुर चयनमा रामा । खान-पान मोहिं किछु ने भावय, ने भावय सुखक सयनमा राम ! छन नहिं मोहिं चयनमा ! चयनमा-चैन । इधर की ओर चैन' को स्त्रीलिङ्ग में बोलते हैं; पर मिथिला में कदाचित पुल्लिङ्ग-चयनमा'। समास में 'क्षण’ को ‘ख’ देखा; परन्तु यहाँ खुले प्रयोग में ‘छन’ है। 'लागय’ अवधी मैं ब्लागहि” के रूप में चलती हैं, इ-लोप से “लागई’ भी । मिथिला में ‘इ’ को ‘य कर के 'लागय' 'भाव' आदि । खान-पान खड़ी-बोली के खाना-पीना' की पुंविभक्ति इट